SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ध्यानधारणा भी कर लेते थे। आचार्यश्री और रुद्राप्पा दोनों की अध्यात्म विषय में अच्छी चर्चा चलती थी। वह उनके जीवनी का जीवनसत्व बन गया । आप्पा के साहचर्य में सातगौंडा की आध्यात्मिक जीवन की रुचि और बढने लगी। आत्मानुशासन, समयसार इन दो ग्रंथों का वाचन सातगौंडा प्रारंभ से ही करते थे। विशेष रूप से तत्त्वचिंतन मनन में काल व्यतीत होता था। आयु के १७ वे १८ वे वर्ष में भरी युवावस्था में ही मन में दिगंबरी दीक्षा लेने के सहज भाव होने लगे। परंतु माता-पिता के दबाव वश उस समय वे अपने विचारों को अमल में न ला सके, व्यक्त भी न कर सके। कुछ काल तक उन्हें यथापूर्व घर में ही रहना पड़ा। परंतु प्रवृत्ति जल से भिन्न कमल की तरह बनी रही। शास्त्रस्वाध्याय की तरह तीर्थक्षेत्रों की भक्ति का भी आचार्यश्री के जीवन में विशेष स्थान रहा । मोक्ष मार्ग के पथिक साधक के जीवन में तीर्थयात्रा-दर्शन का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता ही है। असंगभाव या वीतराग भावों की धारा प्रवाहिता के लिए दृष्टिसंपन्न साधु यात्रा को अच्छा निमित्त बना सकता है । सातगौंडा यह कर पाये इसी में परिमार्जित तत्त्वदृष्टि स्पष्ट होती है। यात्रा के लिये यात्रा न थी। विहार का प्रत्येक कदम वीतरागता के लिए था, वीतरागता की ओर था । । आचार्यश्री ने दीक्षा लेने के पूर्व काल में भी सिद्धक्षेत्रों की तथा अतिशय क्षेत्रों की वंदना करके गृहस्थ अवस्था में ही अपनी संन्यास मार्ग की भूमिका बना ली। सिद्धक्षेत्रों के दर्शन का उनके मन में विशेष आकर्षण था। जहाँ सामान्य जनता भोगोपभोगद्वारा इन्द्रियों की गुलामी स्वीकार करती है वहीं पर युवक सातगौंडा को इंद्रिय दमन में आनंद का अनुभवन होता था । बाईस साल की आयु में आचार्यश्री जब श्री सम्मेदशिखरजी गये तब वहीं पर उन्होंने तेल और घी न खाने का नियम स्वयंप्रेरणा से ले लिया। घर आने के बाद दिन में एक ही बार भोजन करने का भी नियम बना लिया। त्याग की यह गुणश्रेणि स्वयंभू थी, सजीव थी। श्री शिखरजी की यात्रा के साथ ही साथ चंपापुरी, पावापुरी, राजगृही इत्यादि तीर्थक्षेत्रों की भी यात्रा सातगौंडा ने की। श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा से लौटने के अनंतर उनका लक्ष्य संसार से अधिक मात्रा में उदासीन होता रहा। वे अपना समय शास्त्रस्वाध्याय तथा आध्यात्मिक चर्चा में विशेषता से लगाने लगे। रुद्राप्पा बुरजे तथा भीमाया गळतगे जैसे अध्यात्मप्रेमी सज्जनों के सहवास में सातगौंडा ने अपने त्यागमय जीवन का भवन इतना अच्छा प्रशस्त बना लिया कि स्वयं रुद्रापा और भीमाप्या भी सातौंडा का अत्यधिक आदरभाव करने लगे। सहज संवेगभाव और वैराग्य इसी अवस्था में पांच छः साल और बीत गये। सातगौंडा के मन में निग्रंथ दीक्षा लेने के विचार तीव्रता से आने लगे। अबकी बार साहस के साथ माता पिता के समक्ष उन्होंने अपनी भावना व्यक्त भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy