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________________ परमपूज्य तपोनिधि चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य शांतिसागर महाराज का जीवनपरिचय तथा कार्य डॉ. श्री. सुभाषचंद्र अक्कोळे, एम्. ए., पीएच. डी., जयसिंगपूर Jain Education International साधु परंपरा अज्ञान -- तिमिरांधानां ज्ञानांजन-शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ' णमो लोए सव्वसाहूणं' अनादिनिधन पंच णमोकार मंत्र में साधुपरमेष्ठी वंद्य, मंगल तथा लोकोत्तम माने गये हैं । अंतर्बाह्य विदेही अवस्था के धनी, परमधर्मरूप वीतरागता के स्वामी, स्फटिकमणि जैसी निर्मलता के धारी, आत्मानंद विहारी सर्वतंत्र स्वतंत्र साध्यस्वरूप सिद्धस्वरूप के उपासक, साधनस्वरूप भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक साधु मंगलमय होते हैं। लोकों में उत्तम होते हैं। संसार में डूबते हुए निराधार के सहज शरण होते हैं । इसलिए उन्हें भक्ति भावों से प्रामाणिक साधक प्रति दिन वंदना करता ही है । प्राचीन काल से जैन आचार्यों के संघ विहार को सांस्कृतिक इतिहास में प्रमुख स्थान है । श्री अकंपनाचार्य के संघ में एक हजार मुनिगण थे । आचार्य भद्रबाहु हजारों मुनिगण के साथ विहार करते-करते दक्षिण देश में आये ऐसा ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है । कोण्णूर ( गोकाक रोड स्टेशनके समीप) की सात सौ गुफाएँ तथा तेरदल का एक हजार वर्ष से भी पुराना राजा गोंक का आदर्शरूप शिलालेख और गुफाएँ इसके ज्वलंत प्रमाण हैं । बीच में कुछ काल दिगंबर जैन साधु का दर्शन दुर्लभसा हो गया था । परंतु दक्षिण महाराष्ट्र और कर्नाटक के सीमा प्रदेश ने विशेषतः तेरदाल, रायबाग, स्तवनिधि, बाहुबली, नांदणी, कोल्हापूर के आसपास के क्षेत्र ने दिगंबर गुरु-परंपरा अक्षुण्ण बनाई रखखी जैसे धरती में गढा हुआ सुरक्षित सुवर्ण धन हो । परमपूज्य श्री १०८ आचार्य शांतिसागर महाराजजी का उदय भी इसी मुनि -परंपरा में से हुआ है । २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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