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________________ १५८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सुद्धो सुद्धादेसो णायचो परमभावदरसीहि । ववहारदेसिदो पुण जे दु अपरमें ट्ठिदा भावे ॥ यदि परिणाम स्वरूपानुभव में भी प्रवृत्त होते नहीं और विकल्प समझकर गुणस्थानादि विशेष स्वरूप का भी विचार न किया जाय, तो 'इतो भ्रष्टः, ततो भ्रष्टः ' होकर अशुभोपयोग में प्रवृत्ति करनेवाला अपना अकल्याण ही करेगा। अपरंच, वेदांत आदि शास्त्राभासों में भी जीव का स्वरूप शुद्ध कहा है। उसके यथार्थ-अयथार्थ का निर्णय विशेष स्वरूप जाने विना कैसा सम्भव है ? इसलिए इस ग्रन्थ का अभ्यास करना चाहिये । प्रश्न—करणानुयोग शास्त्र द्वारा जीव के विशेष स्वरूप का अभ्यास करनेवाला भी द्रव्यलिंगी मुनि अध्यात्मश्रद्धान विना संसार में ही भटकता है, परंतु अध्यात्म शास्त्र के अनुसार अल्प श्रद्धान करने वाले तिर्यच को भी सम्यक्त्व होता है। तुष माष भिन्न इतने ही श्रद्धान से शिव भूति मुनि को मुक्ति की प्राप्ति हुई है। इसलिए प्रयोजन मात्र अध्यात्म शास्त्र का ही उपदेश देना कार्यकारी है। समाधान-जो द्रव्यलिंगी करणानुयोग शास्त्र द्वारा विशेष स्वरूप जानता है उसको अध्यात्मशास्त्र का भी ज्ञान यथार्थ हो सकता है। परंतु वह मिथ्यात्व के उदय से उस ज्ञान का उपयोग अयथार्थ करेगा तो उसके लिए शास्त्र क्या करेगा ? करणानुयोग शास्त्र तथा अध्यात्म शास्त्र इनमें तो परस्पर कुछ भी विरोध नहीं है। दोनों शास्त्रों में आत्मा के रागादिक भाव कर्म निमित्त से उत्पन्न होते है ऐसा कहा है। द्रव्यलिंगी उनका स्वयं कर्ता होकर प्रवर्तता है। शरीराश्रित सर्व शुभ-अशुभ क्रिया पुद्गलमय कही है। द्रव्यलिंगी उनको अपनी मानकर उनमें हेय-उपादेय बुद्धि करता है। सर्व ही शुभ-अशुभ भाव आस्रव-बन्ध के कारण कहे है। द्रव्यलिंगी शुभ क्रिया को संवर-निर्जर-मोक्ष का कारण मानता है। शुद्ध भाव ही संवर-निर्जरा-मोक्ष के कारण कहे है। उनको तो द्रव्यलिंगी पहचानता ही नहीं । तथा तिर्यंच को अल्प ज्ञान से भी जो सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तथा शिवभूति मुनि को अल्प ज्ञान से भी जो केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई है, उसमें भी उनके पूर्व जन्म के संस्कार कारण होते हैं। किसी विशेष जीव को अल्प ज्ञान से कार्य सिद्धि हुई, इसलिए सर्व जीवों को होगी यह कोई नियम नहीं है। किसी को दैव वश विना व्यापार करते हुये धन मिला, तो सर्व जीवों ने व्यापार करना छोड देना यह कोई राजमार्ग नहीं है। राजमार्ग तो यही है-इस ग्रन्थ के द्वारा नाना प्रकार जीव का विशेष स्वरूप जान कर आत्मस्वरूप का यथार्थ निर्णय करने से ही कार्य सिद्धि होगी। शास्त्राभ्यास की महिमा अपार है। इसीसे आत्मानुभव दशा प्राप्त होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है । यह तो परोक्षफल है। शास्त्राभ्यास का साक्षात् फल--क्रोधादि कषायों की मंदता होती है । इंद्रियों की उच्छृखल विषय प्रवृत्ति रुकती है । अति चंपल मन भी एकाग्र होता है। हिंसादि पंच पापों में प्रवृत्ति होती नहीं। हेय-उपादेय की पहचान होकर जीव आत्मज्ञान के सन्मुख होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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