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________________ पं. टोडरमलजी और गोम्मटसार भाव होते हैं उससे विषयादिक में उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है, उस बाह्य प्रवृत्ति का कारण यद्यपि उनका योग-उपयोग परिणाम होता है । तथापि उनमें उनकी रुचि-अभिप्राय-या धर्मबुद्धि नहीं होने से वे अबुद्धिपूर्वक कहे जाते हैं। प्रश्न-जो ऐसा है तो कोई भी विषयादिकों को सेवेंगे और कहेंगे कि हमारा उदयाधीन कार्य हो रहा है। समाधान-केवल कहने मात्र से कार्यसिद्धि होती नहीं। सिद्धि तो अभिप्राय के अनुसार ही होती है । इसलिये जैन शास्त्र के अभ्यास से अपने अभिप्राय को सम्यक्प करना चाहिये। अंतरंग में विषयादि के सेवन का अभिप्राय रखते हुये धर्मार्थी नाम नहीं पा सकता है। ३ प्रश्न-अब द्रव्यानुयोग का पक्षपाती शिष्य पूछता है कि जीव और कर्मके विशेष स्वरूप समझने से अनेक विकल्प तरंग उत्पन्न होते है, उससे कार्यसिद्धि कैसी होगी ? अपने शुद्धस्वरूप का अनुभवन करने का, स्व-पर का भेदविज्ञान का ही उपदेश कार्यकारी होगा ? । समाधान हे सूक्ष्माभासबुद्धि ! आपका कहना तो ठीक है, लेकिन अपनी जघन्य अवस्था का भी ख्याल रखना चाहिये। यदि स्वरूपानुभवन में या भेदविज्ञान में निरंतर उपयोग स्थिर होता है तो नाना विकल्प करने की क्या जरूरत है। अपने स्वरूपानंद सुधारस में ही मस्त रहना चाहिये । परंतु यदि जघन्य अवस्था में उपयोग निरंतर स्थिर नहीं रहता है, उपयोग अनेक निरंतर अवलंबन को चाहता है तो उस समय गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना उचित है । अध्यात्मशास्त्र का अभ्यास विशेष कार्यकारी है सो तो युक्त ही है। परंतु भेदविज्ञान होने के लिये स्व-पर का (जीव और कर्म का) विशेष स्वरूप जानना आवश्यक है। इसलिये इस शास्त्र का अभ्यास करना चाहिये । “सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ”—सामान्य शास्त्र से विशेष शास्त्र बलवान् होता है। प्रश्न-अध्यात्म शास्त्र में तो गुणस्थानादि विशेष रहित शुद्ध स्वरूप का अनुभवन करने का उपदेश है, और इस ग्रंथ में तो गुणस्थानादि सहित जीव का वर्णन किया है। इसलिये अध्यात्म शास्त्र और इस शास्त्र में तो विरोध दीखता है । समाधान-नय के २ प्रकार हैं । १ निश्चय, २ व्यवहार । १ निश्चयनय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेष रहित शुद्ध अभेद वस्तुमात्र एकही प्रकार है। २ व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेष रूप अनेक प्रकार हैं । जो जीव सर्वोत्कृष्ट अभेद स्वरूप एक स्वभावभाव का ही अनुभव करते हैं उनके लिये तो शुद्ध निश्चयनय ही कार्यकारी है । परंतु जो स्वानुभव दशा को प्राप्त नहीं है, स्वानुभव-निर्विकल्प दशा से च्युत होकर सविकल्प दशा को प्राप्त हुए है ऐसे अनुत्कृष्ट-अशुद्ध-भाव में स्थित है उनके लिए व्यवहारनय शास्त्र ही प्रयोजनवान् है। समयसार में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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