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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ तथा करणानुयोगमें यद्यपि वस्तुके क्षेत्र, काल भावादिक अखंडित हैं, तथापि छद्मस्थको हीनाधिक ज्ञान होनेके अर्थ प्रदेश, समय, अविभागप्रतिच्छेदादिककी कल्पना करके उनका प्रमाण निरूपित करते हैं। तथा एक वस्तुमें भिन्न भिन्न गुणोंका व पर्यायोंका निरूपण करते हैं; तथा जीव - पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सम्बन्धादिक द्वारा अनेक द्रव्यसे उत्पन्न गति, जाति आदि भेदोंको एक जीवके निरूपित करते हैं; इत्यादि व्याख्यान व्यवहारनयकी प्रधानता सहित जानना; क्योंकि व्यवहारके बिना विशेष नहीं जान सकता। तथा कहीं निश्चयवर्णन भी पाया जाता है। जैसे-जीवादिक द्रव्योंका प्रमाण निरूपण किया, वहाँ भिन्न-भिन्न इतने ही द्रव्य हैं । वह यथासम्भव जान लेना । तथा करणानुयोगमें जो कथन हैं वे कितने ही तो छद्मस्थके प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होते हैं; तथा जो न हों उन्हें आज्ञाप्रमाण द्वारा मानना । जिस प्रकार जीव-पुद्गलके स्थूल बहुत कालस्थायी मनुष्यादि पर्यायें व घटादि पर्यायें निरूपित की, उनके तो प्रत्यक्ष अनुमानादि हो सकते हैं; परन्तु प्रतिसमय सूक्ष्मपरिणमनकी अपेक्षा ज्ञानादिकके व स्निग्ध-रूक्षादिकके अंश निरूपित किये हैं वे आज्ञासे ही प्रमाण होते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र जानना। __ तथा करणानुयोगमें छद्मस्थोंकी प्रवृत्तिके अनुसार वर्णन नहीं किया है, केवलज्ञानगम्य पदार्थोका निरूपण है। जिस प्रकार कितने ही जीव तो द्रव्यादिकका विचार करते हैं वा व्रतादिक पालते हैं, परन्तु उनके अंतरंग सम्यक्त्वचारित्र शक्ति नहीं है इसलिये उनको मिथ्यादृष्टि-अव्रती कहते हैं। तथा कितने ही जीव द्रव्यादिकके व व्रतादिकके विचार रहित हैं, अन्य कार्योंमें प्रवर्तते हैं व निद्रादि द्वारा निर्विचार हो रहे हैं, परन्तु उनके सम्यक्त्वादि शक्तिका सद्भाव है इसलिये उनको सम्यक्त्वी व व्रती कहते हैं । ___ तथा कहीं जिसकी व्यक्तता कुछ भासित नहीं होती, तथापि सूक्ष्मशक्तिसे सद्भावसे उसका वहाँ अस्तित्व कहा है । जैसे-मुनिके अब्रह्म कार्य कुछ नहीं है, तथापि नववें गुणस्थानपर्यन्त मैथुन संज्ञा कही है ।। तथा करणानुयोग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिक धर्मका निरूपण कर्म प्रकृतियोंके उपशमादिककी अपेक्षासहित सूक्ष्मशक्ति जैसे पायी जाती है वैसे गुणस्थानादिमें निरूपण करता है व सम्यग्दर्शनादिके विषयभूत जीवादिकोंका भी निरूपण सूक्ष्म भेदादि सहित करता है। यहाँ कोई करणानुयोगके अनुसार आप उद्यम करे तो हो नहीं सकता; करणानुयोगमें तो यथार्थ पदार्थ बतलानेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करानेकी मुख्यता नहीं है। इसलिये यह तो चरणानुयोगादिकके अनुसार प्रवर्तन करे, उससे जो कार्य होना है वह स्वयमेव ही होता है। जैसे-आप कर्मोके उपशमादि करना चाहे तो कैसे होंगे ? आप तो तत्त्वादिकका निश्चय करनेका उद्यम करे, उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना। एक अन्तर्मुहूर्तमें ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरकर क्रमशः मिथ्यादृष्टि होता है और चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है। सो ऐसे सम्यक्त्वादिके सूक्ष्मभाव बुद्धिगोचर नहीं होते, इसलिये करणानुयोगके अनुसार जैसे का तैसा जान तो ले, परन्तु प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला हो वैसी करे । अब, चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान बतलाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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