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________________ चार अनुयोग तथा प्रथमानुयोगमें उपचाररूप किसी धर्मका अंग होनेपर सम्पूर्ण धर्म हुआ कहते हैं । जैसे--जिन जीवोंके शंका-कांक्षादिक नहीं हुए, उनको सम्यक्त्व हुआ कहते हैं, परन्तु किसी एक कार्यमें शंका-कांक्षा न करनेसे ही तो सम्मक्त्व नहीं होता, सम्यक्त्व तो तत्त्वश्रद्धान होनेपर होता है; परन्तु निश्चय सम्यक्त्वका तो व्यवहारसम्यक्त्वमें उपचार किया और व्यवहारसम्यक्त्वके किसी एक अंगमें सम्पूर्ण व्यवहारसम्यक्त्वका उपचार किया। इस प्रकार उपचार द्वारा सम्यक्त्व हुआ कहते हैं। तथा प्रथमानुयोगमें कोई धर्मबुद्धिसे अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं। जैसे विष्णुकुमारने मुनियोंका उपसर्ग दूर किया तो धर्मानुरागसे किया, परन्तु मुनिपद छोड़कर यह कार्य करना योग्य नहीं था; क्योंकि ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्ममें सम्भव है, और गुहस्थ धर्मसे मुनिधर्म ऊँचा है; सो ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार किया वह अयोग्य है, परन्तु वात्सल्य अंगकी प्रधानतासे विष्णुकुमारजीकी प्रशंसा की है । इस छलसे औरोंको ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है। तथा कितने ही पुरुषोंने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थ अथवा रोग-कष्टादि दूर करनेके अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य किये, स्तोत्रादि किये, नमस्कारमन्त्र स्मरण किया, परंतु ऐसा करनेसे तो निःकांक्षितगुणका अभाव होता है, निदानबन्ध नामक आर्तध्यान होता है; पापहीका प्रयोजन अंन्तरंगमें है इसलिये पापहीका बन्ध होता है; परन्तु मोहित होकर भी बहुत पापबंधका कारण कुदेवादिका तो पूजनादि नहीं किया, इतना उसका गुण ग्रहण करके उसकी प्रशंसा करते हैं; इस छलसे औरोंको लौकिक कार्योंके अर्थ धर्म साधन करना युक्त नहीं है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना । इसी प्रकार प्रथमानुयोगमें अन्य कथन भी हों, उन्हें यथा सम्भव जानकर भ्रमरूप नहीं होना। अब, करणानुयोगमें किसप्रकार व्याख्यान है सो कहते हैं-- करणानुयोगमें व्याख्यानका विधान जैसा केवलज्ञान द्वारा जाना वैसा करणानुयोगमें व्याख्यान है। तथा केवलज्ञान द्वारा तो बहुत जाना परन्तु जीवको कार्यकारी जीव-कर्मादिकका व त्रिलोकादिकका ही निरूपण इसमें होता है। तथा उनका भी स्वरूप सर्व निरूपित नहीं हो सकता, इसलिये जिस प्रकार वचनगोचर होकर छद्मस्थके ज्ञानमें उनका कुछ भाव भासित हो, उस प्रकार संकुचित करके निरूपण करते हैं। यहाँ उदाहरणः-जीवके भावोंकी अपेक्षा गुणस्थान कहे है, वे भाव अनन्तस्वरूपसहित वचनगोचर नहीं हैं । वहाँ बहुत भावोंकी एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं। तथा जीवको जाननके अनेक प्रकार हैं, वहाँ मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया है । तथा कर्म परमाणु अनंतप्रकार शक्तियुक्त हैं; उनमें बहुतों की एक जाति करके आठ व एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ कही हैं। तथा त्रिलोकमें अनेक रचनाएँ हैं, वहाँ कुछ मुख्य रचनाओंका निरूपण कहते हैं । तथा प्रमाणके अनन्त भेद हैं वहाँ संख्यातादि तीन भेद व इनके इक्कीस भेद निरूपित किये हैं। इसी प्रकार अन्यत्र जानना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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