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________________ - चार अनुयोग चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान चरणानुयोगमें जिसप्रकार जीवोंके अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण हो वैसा उपदेश दिया है । वहाँ धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है वही है; उसके साधनादिक उपचारसे धर्म हैं, इसलिये व्यवहारनयकी प्रधानतासे नानाप्रकार उपचार धर्मके भेदादिकोंका इसमें निरूपण किया जाता है; क्योंकि निश्चयधर्ममें तो कुछ ग्रहण-त्यागका विकल्प नहीं है और इसके निचली अवस्थामें विकल्प छूटता नहीं है; इसलिये इस जीवको धर्मविरोधी कार्योको छुड़ानेका और धर्म साधनादि कार्योको ग्रहण करानेका उपदेश इसमें है । वह उपदेश दो प्रकारसे दिया जाता है—एक तो व्यवहारहीका उपदेश देते हैं, एक निश्चय सहित व्यवहारका उपदेश देते हैं। वहाँ जिनजीवोंके निश्चयका ज्ञान नहीं है व उपदेश देने पर भी नहीं होता दिखायी देता ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव कुछ धर्मसन्मुख होनेपर उन्हें व्यवहारहीका उपदेश देते हैं। तथा जिन जीवोंको निश्चय-व्यवहारका ज्ञान है व उपदेश देनेपर उनका ज्ञान होता दिखायी देता है-ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव व सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव उनको निश्चय सहित व्यवहारका उपदेश देते हैं; वहाँ व्यवहार उपदेशमें तो बाह्य क्रियाओंकी ही प्रधानता है; उनके उपदेशसे जीव पापक्रिया छोड़कर पुण्यक्रियाओंमें प्रवर्तता है, वहाँ क्रियाके अनुसार परिणाम भी तीव्रकषाय छोड़कर कुछ मन्दकषायी हो जाती हैं, सो मुख्यरूपसे तो इस प्रकार है, परन्तु किसीके न हों तो मत होओ, श्री गुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थ बाह्यक्रियाओंका उपदेश देते हैं। तथा निश्चय सहित व्यवहारके उपदेशमें परिणामोंकी ही प्रधानता है; उसके उपदेशसे तत्त्वज्ञानके अभ्यास द्वारा व वैराग्य भावना द्वारा परिणाम सुधारे वहाँ परिणामके अनुसार बाह्य क्रिया भी सुधर जाती है। परिणाम सुधरने पर बाह्यक्रिया सुधरती ही है; इसलिये श्री गुरु परिणाम सुधारनेका मुख्य उपदेश देते हैं। इस प्रकार दो प्रकारके उपदेशमें जहाँ व्यवहारका ही उपदेश हो वहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थ अरहन्तदेव, निम्रन्थ गुरु, दया-धर्मको ही मानना, औरको नहीं मानना । तथा जीवादिक तत्त्वोंका व्यवहार स्वरूप कहा है उसका श्रद्धान करना, शंकादि पच्चीस दोष न लगाना; निःशंकितादि अंग व संवेगादिक गुणोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं; तथा सम्यग्ज्ञानके अर्थ जिनमतके शास्त्रोंका अभ्यास करना, अर्थ-व्यंजनादि अंगोंका साधन करना इत्यादि उपदेश देते हैं; तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ एकदेश वा सर्वदेश हिंसादि पापोंका त्याग करना, व्रतादि अंगोंका पालन करना इत्यादि उपदेश देते हैं; तथा किसी जीवकी विशेष धर्मका साधन न होता जानकर एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश देते हैं; जैसे-भीलको कौएका माँस छुड़वाया, ग्वालेको नमस्कारमन्त्र जपनेका उपदेश दिया, गृहस्थको चैत्यालय, पूजा-प्रभावनादि कार्यका उपदेश देते हैं,--इत्यादि जैसा जीव हो उसे वैसा उपदेश देते हैं। तथा जहाँ निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश हो, वहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थ यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान कराते हैं। उनका जो निश्चयस्वरूप है सो भूतार्थ है, व्यवहार स्वरूप है सो उपचार है-ऐसे श्रद्धानसहित व स्व-परके भेदज्ञान द्वारा परद्रव्यमें रागादि छोड़नेके प्रयोजनसहित उन तत्त्वोंका श्रद्धान करनेका उपदेश देते हैं। ऐसे श्रद्धानसे अरहन्तादिके सिवा अन्य देवादिक झूठ भासित हों तब स्वयमेव उनका मानना छूट जाता है, उसका भी निरूपण करते हैं। तथा सम्यग्ज्ञानके अर्थ संशयादिरहित उन्हीं तत्त्वोंको उसी प्रकार जाननेका उपदेश देते हैं उस जाननेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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