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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ उसके प्रतिपादक द्रव्यानुयोगका अभ्यास करता रहे तो वह तत्त्वज्ञान रहता है, न करे तो भूल जाता है। अथवा संक्षेपरूपसे तत्त्वज्ञान हुआ था, वह नाना युक्ति-हेतु-दृष्टान्तादि द्वारा स्पष्ट होजाये तो उसमें शिथिलता नहीं हो सकती। तथा इस अभ्याससे रागादि घटनेसे शीघ्र मोक्ष सधता है। इस प्रकार द्रव्यानुयोगका प्रयोजन जानना। अब इन अनुयोगोंमें किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहते हैं : प्रथमानुयोगमें व्याख्यानका विधान प्रथमानुयोगमें जो मूल कथाएँ हैं, वे तो जैसी हैं, वैसी ही निरूपित कहते हैं। तथा उनमें प्रसंगोपात् व्याख्यान होता है, वह कोई तो ज्यों का त्यों होता है, कोई ग्रन्यकर्ताके विचारानुसार होता है, परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता । ___ उदाहरण-जैसे तीर्थंकर देवोंके कल्याणकोंमें इन्द्र आये, यह कथा तो सत्य है। तथा इन्द्रने स्तुति की, उसका व्याख्यान किया; सो इन्द्रने तो अन्य प्रकारसे ही स्तुति की थी और यहाँ ग्रन्थकर्ताने अन्य ही प्रकारसे स्तुति करना लिखा है; परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा नहीं हुआ। तथा प्रसंगरूप कया भी ग्रन्थकर्ता अपने विचारानुसार कहते हैं। जैसे-धर्मपरीक्षामें मूल्की कथा लिखी; सो वही कथा मनोवेगने कही थी ऐसा नियम नहीं है; परन्तु मूर्खपनेका पोषण करनेवाली कोई कथा कही थी ऐसे अभिप्रायका पोषण करते हैं । इसी प्रकार अन्यत्र जानना। यहाँ कोई कहे-अयथार्थ कहना तो जैन शास्त्रमें सम्भव नहीं है ? उत्तर :—अन्यथा तो उसका नाम है जो प्रयोजन अन्यका अन्य प्रगट करे। जैसे—किसीसे कहा कि तू ऐसा कहना; उसने वे ही अक्षर तो नहीं कहे, परन्तु उसी प्रयोजन सहित कहे तो उसे मिथ्यावादी नहीं कहते, ऐसा जानना। तथा प्रथमानुयोगमें जिसकी मुख्यता हो उसीका पोषण करते हैं। जैसे--किसीने उपवास किया, उसका तो फल अल्प था, परन्तु उसे अन्य धर्मपरिणतिकी विशेषता हुई इसलिए विशेष उच्चपदकी प्राप्ति हुई; वहाँ उसको उपवासहीका फल निरूपित करते हैं । इसी प्रकार अन्य जानना । यहाँ कोई कहे--ऐसा झूठा फल दिखलाना तो योग्य नहीं है; ऐसे कयनको प्रमाण कैसे करें ? समाधान :---जो अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाये बिना धर्ममें न लगें व पापसे न डरें, उनका भला करनेके अर्थ ऐसा वर्णन करते हैं। झूठ तो तब हो, जब धर्मके फलको पापका फल बतलायें, पापके फलको धर्मका फल बतलायें, परन्तु ऐसा तो है नहीं। उपदेशमें कहीं व्यवहारवर्णन है, कहीं निश्चय वर्णन है । यहाँ उपचाररूप व्यवहारवर्णन किया है, इस प्रकार इसे प्रमाण करते हैं। इसको तारतम्य नहीं मान लेना; तारतम्यका तो करणानुयोगमें निरूपण किया है, सो जानना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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