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________________ चार अनुयोग यह रत्न है। परन्तु उस रत्नके बहुतसे विशेषण जानने पर निर्मल रत्नका पारखी होता है; उसी प्रकार तत्त्वोंको जानता था कि यह जीवादिक हैं, परन्तु उन तत्त्वोंके बहुत विशेष जाने तो निर्मल तत्त्वज्ञान होता है । तत्त्वज्ञान निर्मल होनेपर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है, तथा अन्य ठिकाने उपयोगको लगाये तो रागादिककी वृद्धि होती है और छद्मस्थका उपयोग निरन्तर एकाग्र नहीं रहता; इसलिये ज्ञानी इस करणानुयोगके अभ्यासमें उपयोगको लगाता है; उससे केवलज्ञान द्वारा देखे गये पदार्थोका जानपना इसके होता है; प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षहीका भेद है, भासित होनेमें विरुद्धता नहीं है। इसप्रकार यह करणानुयोगका प्रयोजन जानना । “करण" अर्थात् गणित कार्यके कारणरूप सूत्र, उनका जिसमें “अनुयोग'-अधिकार हो वह करणानुयोग है इसमें गणित वर्णनकी मुख्यता है-ऐसा जानना । . चरणानुयोगका प्रयोजन अब, चरणानुयोगका प्रयोजन कहते हैं--चरणानुयोगमें नानाप्रकार धर्मके साधन निरूपित करके जीवोंको धर्ममें लगाते हैं । जो जीव हितअहित को नहीं जानते, हिंसादिक पाप कार्योंमें तत्पर हो रहते हैं; उन्हें जिसप्रकार पापकार्योको छोडकर धर्मकार्योंमें लगे, उसप्रकार उपदेश दिया है; उसे जानकर जो धर्म आचरण करनेको सन्मुख हुए, वे जीव गृहस्थधर्म व मुनिधर्मका विधान सुनकर आपसे जैसा सधे वैसे धर्मसाधनमें लगते हैं । ऐसे साधनसे कषाय मन्द होती है और उसके फलमें इतना तो होता है कि कुगतिमें दुःख नहीं पाते किन्तु सुगतिमें सुख प्राप्त करते है, तथा ऐसे साधनसे जिनमतका निमित्त बना रहता है, वहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होना हो तो होजाती है। तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर चरणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरण अपने वीतरागभावके अनुसार भासित होते हैं। एकदेश व सर्वदेश वीतरागता होनेपर ऐसी श्रावकदशा-मुनिदशा होती है; क्योंकि इनके निमित्तनैमित्तिकपना पाया जाता है । ऐसा जानकर श्रावक-मुनिधर्मके विशेष पहिचानकर जैसा अपना वीतरागभाव हुआ हो वैसा अपने योग्य धमको साधते हैं । वहाँ जितने अंशमें वीतरागता होती है उसे कार्यकारी जानते हैं, जितने अंशमें राग रहता है उसे हेंय जानते हैं । सम्पूर्ण बीतरागताको परमधर्म मानते हैं। ऐसा चरणानुयोगका प्रयोजन है। द्रव्यानुयोगका प्रयोजन __ अब, द्रव्यानुयोगका प्रयोजन कहते हैं—द्रव्यानुयोगमें द्रव्योंका व तत्त्वोंका निरूपण करके जीवोंको धर्ममें लगाते हैं। जो जीव जीवादिक द्रव्योंको व तत्त्वोंको नहीं पहिचानते, आपको-परको भिन्न नहीं जानत, उन्हें हेतु-दृष्टान्त-युक्ति द्वारा व प्रमाण-नयादि द्वारा उनका स्वरूप इस प्रकार दिखाया है जिससे उनको प्रतीति हो जाये । उसके अभ्याससे अनादि अज्ञानता दूर होती है। अन्यमत कल्पित तत्त्वादिक झूठ भासित हों तब जिनमतकी प्रतीति हो और उनके भावको पहचाननेका अभ्यास रखें तो शीघ्र ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो जाये। तथा जिनके तत्त्वज्ञान हुआ हो वे जीव द्रव्यानुयोगका अभ्यास करें तो उन्हें अपने श्रद्धानके अनुसार वह सर्व कथन प्रतिभासित होता है । जैसे किसीने कोई विद्या सीख ली, परन्तु यदि उसका अभ्यास करता रहे तो वह याद रहती है, न करे तो भल जाता है। इस प्रकार इसको तत्त्वज्ञान हुआ, परन्तु यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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