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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ राजा ने कहा :-"हां महाराज ! हम उनकी पूजा करते हैं भक्ति करते हैं।' महाराज ने पूछा :-" उस उत्सव के पश्चात् क्या करते हो ?" राजा ने उत्तर दिया-" महाराज ! बाद में हम उनको पानी में सिरा देते हैं।" महाराज ने पूछा :-जिनकी आपने भक्ति से पूजा की, आराधना की, उनको पानी में क्यों डुबा देते हो?" राजा ने कहा-" महाराज ! पर्व पर्यंत ही गणपति की पूजा का काल था। उसका काल पूर्ण होने पर उनको सिराना ही कर्तव्य है।" __ महाराज ने पूछा-" उनके सिराने के बाद आप फिर किनकी पूजा करते हैं ?" राजाने कहा-" महाराज ! इसके पश्चात् हम राम, हनुमान आदि की मूर्तियों की पूजा करते हैं ?।" महाराज ने कहा--" जैसा पर्व पूर्ण होने के पश्चात् गणपति को सिरा देते हैं और रामचंद्रजी आदि की मूर्ति की पूजा करते हैं, इसी प्रकार इन देवोंकी पूजाका पर्व समाप्त हो गया। इससे उनको सिरा देना ही कर्तव्य है । जिस तरह आप राम, हनुमान आदि की पूजा करते हैं इसी प्रकार मंदिर में अब वे स्थायी मूर्ति तीर्थंकरों की, अरहंतों की रहती है उनकी पूजा करते है।" पूज्य श्री के युक्तिपूर्ण विवेचन से राजा का संदेह दूर होगया । वे श्री महाराज को प्रणाम कर संतुष्ट हो अपने राजभवन को वापिस लौट गए। व्यवहार-निश्चय का सुन्दर समन्वय अनेक विद्वान बंधुओं ने पूज्य श्री की सेवा में निवेदन किया-" कि लोग निश्चय नय के नाम पर व्यवहार-धर्म को छोडते जा रहे हैं, सो यथार्य में ठीक मार्ग क्या है ?" महाराज ने कहा था, " व्यवहार फूल के सदृश है। वृक्ष में प्रथम फूल आता है। बाद में उसी पुष्प के भीतर फल अंकुरित होता है। और जैसे जैसे फल बढता जाता है, वैसे वैसे फूल संकुचित होता जाता है, और जब फल पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाता है, तब पुष्प स्वयं पृथक हो जाता है। इसी प्रकार प्रारम्भ में व्यवहार होता है, उसमें निश्चय-धर्म का फल वीतरूप से निहित रहता ही है। धीरे-धीरे जैसे निश्चय व्यक्त होता है, वैसे-वैसे व्यवहार स्वयं संकुचित होता जाता है, अन्त में निश्चय की पूर्णता होने पर व्यवहार स्वयं तिरोमान हो जाता है। आचार्य महाराज ने जो व्यवहार को पुष्प और निश्चय को फल के रूप में समझाया वह बडा सुन्दर तथा हृदयग्राही है । निश्चय की वृद्धि होने पर व्यवहार स्वयं कम होते-होते घट जाता है, उसे छोडा नहीं जाता है । निश्चय तो स्वयं वस्तुतत्त्वस्वरूप है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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