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________________ स्मृति-मंजूषा वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव पहिले आचार्य महाराज वृत्ति परिसंख्यान तप में बडी कठीन प्रतिज्ञा लेते थे, और उनके पुण्योदय से प्रतिज्ञा की पूर्ति भी होती थी । एक दिन महाराज ने धारणा कर ली थी, आहार के लिए जाते समय यदि तत्काल प्रसूत बछडे के साथ गाय मिलेगी तो आहार लेंगे । यह प्रतिज्ञा उन्होंने अपने मन के भीतर ही की थी। किसी को भी इसका पता नहीं थी । अन्तराय का उदय नहीं होने से ऐसा योग तत्काल मिल गया और महाराज श्री का आहार निरंतराय हो गया । लगभग १९३० के शीतकाल में आचार्य श्री ग्वालियर पहुंचे । जोरदार ठंड थी । उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि गीले वस्त्र पहिन कर यदि कोई पडगाहेगा तो आहार लेंगे, अन्यथा नहीं । महाराज ने घरों के सामने से दो बार गमन किया। लोगों ने निराश होकर सोचा, आज योग नहीं है । लोगों के वस्त्र अन्यों के स्पर्श से अशुद्ध हो गये । एकदम महराज तीसरी बार लौट पडे । एक श्रावक ने तत्काल पानी डाल कर वस्त्र गीले किये और पडगाहा । विधि मिल जाने से उनका आहार हो पाया । एक समय उन्होंने यह प्रतिज्ञा की, कि कोई जवाहरात थाली में रखकर पडगाहेगा तो आहार लेंगे, अन्यथा उपवास करेंगे । यह घटना कोल्हापूर की थी। उस दिन वहाँ के नगरसेठ के मन में थाली में बहुमूल्य जेवर - जवाहरात रखकर पडगाहने की इच्छा हुई । अतः यह योग मिल गया । दातार सेठ को उत्तम पात्र को, आहार का योग मिला। इस प्रसन्नतावश और आहार निरंतराय हो जाय इस विकल्पवश सेठजी को यह ध्यान नहीं रहा, कि मैं बहुमूल्य आभूषणों आदि को उठाकर भीतर रख दूं । वे बाहर के बाहर ही रह गए । ज्यों हि महाराज का आहार प्रारंभ हुआ, सेठजी को अपनी बहुमूल्य सामग्री का स्मरण हो गया । उस समय उनकी मानसिक स्थिति अद्भुत थी । यहाँ उत्तम पात्र की सेवा का श्रेष्ठ सौभाग्य था और वहाँ हजारों की संख्या का धन जाने की आशंका हृदय को व्यथित कर रही थी । आचार्य महाराज की दृष्टि में ये सब बातें पहले से ही थी । उस समय सेठजी की मनोव्यथा देखकर महाराज के मन में सहज ही दया का विकल्प आया । भविष्य में उन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा न करने का निश्चय किया था । आहार के बाद ही सठेजी बाहर आये तो वहाँ आभूषणों की थाली नहीं थी । इस बीच में यह घटना हुई कि जो उपाध्याय वहाँ आया था उसकी दृष्टि भाग्य से आभूषणों पर गई थी, उसने अपने विवेक की प्रेरणा से उस सामग्री को पहले ही सुरक्षित स्थान पर रख दिया था, इससे कुछ भी क्षति नहीं हुई । ११९ धोदक से सपविष निवारण जिनेन्द्र के मंत्र की अपूर्वता बताते हैं । एक बार बरार प्रांत के अमरावती जिले में हिवरखेड देहात है । वहाँ के जैन मंदिर के कर्मचारी को भयंकर सर्पराज ने काट दिया । वह मंदिर का माली सदा ही जिन भगवान की सेवा करता था । उसके मन में पारसनाथ भगवान् के प्रति गहरी श्रद्धा थी । उसकी प्रार्थना पर जैन बंधुओं ने भगवान् श्री पार्श्वनाथ का अभिषेक करना प्रारंभ किया। सभी जैन बंधु प्रभु की पूजा में तन्मय हो रहे थे । उस समय विष का वेग चढता जा रहा था । मंदिर के पास अन्य मतानुयायीयों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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