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________________ चाहिये । स्मृति-मंजूषा अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद् यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥ सर्वज्ञ देव तप का फल समाधिमरण कहते हैं । इसलिये शक्तिभर समाधिमरण का प्रयत्न करना आचार्य महाराज ने सर्वज्ञों के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया । जिस शान्ति से उन्होंने शरीर त्यागा वह उल्लेखनीय है । आज कल श्रावकों में अज्ञान का बाहुल्य है और भक्ति का अतिरेक है । अतः उनके बीच में रहनेवाला साधु यदि स्वयं सावधान न हो तो वह अपने चारित्र का पालन कर नहीं सकता । आचार्य महाराज इस स्थिति से परिचित थे और वे सदा सावधान रहते थे तथा विद्वानों को भी गलत कार्य करने पर फटकार देते थे । एकबार एक विद्वान ने एक फूल उनके चरणों के ऊपर चढा दिया । महाराज ने उन्हें इसके लिये फटकारा । उनके उपदेश से जो एक शास्त्रोद्धार फण्ड स्थापित किया गया था उसमें आठ ग्रन्थ छपाकर मन्दिरों को वितीर्ण किये गये थे । उनमें रत्नकरंड श्रावकाचार की पं. सदासुखजीकृत भाषा टीका भी है । पं. सदासुखजी की टीका में ऐसी कई प्रवृत्तियों की आलोचना है जो दक्षिण भारत में प्रचलित है, जैसे पद्मावती पूजा, सचित्त पूजा, रात्रिपूजा आदि । आचार्य महाराज ने अवश्य ही उसकी स्वाध्याय की होगी और, उसे उपयोगी जानकर ही प्रकाशित करने का सुझाव दिया होगा । यह उनके वीतराग मार्ग के प्रति गहरी आस्था और विचारता का द्योतक है। हम उनके प्रति सादर नमन पूर्वक अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं । वे त्याग और निस्पृहता का उत्कृष्ट उदाहरण थे (संस्मरण) Jain Education International १०५ डॉ. दरबारीलाल कोठिया रीडर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी. सन् १९५५ के अगस्त-सितम्बर की बात है । सिद्धक्षेत्र श्री कुंथलगिरी (महाराष्ट्र) में चारित्र - चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी ने समाधिमरणपूर्वक देहोत्सर्ग किया था । ( कई शताब्दियों बाद दिगम्बर साधुत्व का साकार एवं निरपवाद रूप उन्हों ने प्रस्तुत किया था । दृढ़ संयम, घोर तप, अद्वितीय निःस्पृहता और असामान्य त्याग के द्वारा आचार्यश्री ने लुप्तप्राय एवं निष्प्राण मुनिधर्म को उज्जीवित करके उसकी निर्दोष परम्परा को पुनः प्रवृत्त किया था ) । दक्षिण से उत्तर और पश्चिम से पूर्व सभी दिशाओं एवं प्रदेशों में पादविहार करके विशाल संघ के रूप में विस्मृत एवं अदृश्य हुए दिगम्बरत्व का लाखों लोगों को दर्शन कराया था। इससे जनता में उनका अदभुत प्रभाव था और जनता की भी भक्ति एव श्रद्धा उनके प्रति अद्भुत थी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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