SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ महाराज ने १४ अगस्त १९५५, रविवार को शरीर की अशक्तता और आखों में काचबिन्दु हो जाने से उत्पन्न मन्दता के कारण समाधिमरण लिया था, जो १८ सितम्बर १९५५, रविवार तक ३५ दिन रहा था। १८ सितम्बर को प्रातः ६-५० बजे अत्यन्त शान्ति और समताभावपूर्वक शरीर का उन्होंने त्याग किया था। समाधिमरण काल में जो उनकी दृढ़ता, तपश्चर्या और संयम का रूप निखरकर आया था वह अद्वितीय था । ३५ दिन तक चले उनके समाधिमरण को देखने और उनके अन्तिम दर्शन करने के लिए हजारों लोग कुंथलगिरि पहुंचे थे। हमें भी इस अवसर पर पहुँचने का सौभाग्य मिला था और वहाँ १९ दिन दाह-संस्कार तक रहे थे। समाधिमरण काल में ३५ दिनों में महाराज की जैसी प्रकृति, चेष्टा और चर्या रही थी उसका पूरा विवरण अपनी दैनंदिनी (डायरी) के आधार से जैन बालआश्रम, दिल्ली के मासिक मुखपत्र 'जैन प्रचारक' (नवम्बर-दिसम्बर १९५५) में दिया था और उसका पूरा ही अंक 'सल्लेखनांक' विशेषांक के रूप में निकाला था । यहां हम महाराज के सम्बन्ध में एक-दो संस्मरण दे रहे हैं। महाराज ने १४ अगस्त ५५ को पण्डितमरण समाधि के दूसरे भेद इंगिनीमरण समाधिव्रत को लिया था। इससे पूर्व महाराज ५ वर्ष से पण्डितमरण के पहले भेद भक्त प्रत्याख्यान के अन्तर्गत सविचार भक्तप्रत्याख्यान का, जिसका उत्कृष्ट काल १२ वर्ष है, अभ्यास कर रहे थे । इंगिनीमरण समाधिव्रत को लेते समय उपस्थित लोगों को निर्देश करते हुए महाराज ने कहा था कि 'हम इंगिनीमरण संन्यास ले रहे हैं। उसमें आप लोग हमारी सेवाटहल न करें और न किसी से करायें। पंचम काल होने से हमारा संहनन प्रायोपगमन समाधि (पण्डितमरण के तीसरे भेद) को लेने के योग्य नहीं है, नहीं तो उसे धारण करते ।' महाराज के इस निर्देशन और इंगिनीमरण संन्यास के धारण से, जिसमें परकी सेवा की बिलकुल भी अपेक्षा नहीं की जाती, क्षपक स्वयं ही अपने शरीर की टहल करता है, स्वयं उठता है, स्वयं बैठता है, स्वयं लेटता है और इस तरह अपनी तमाम क्रियाओं में सदा स्वावलम्बन रखता है, ज्ञात हो जाता है कि उनकी शरीर के प्रति कितनी निःस्पृहता थी। एक दिन तो यह भी महाराज ने कहा कि 'हमारे देह का दाह-संस्कार न किया जाय, उसे गृद्धादि पक्षी भक्षण कर जायें। भगवती आराधना में ऐसा ही लिखा है। ' यह उनकी कितनी उत्कृष्ट निःस्पृहता है। जिस शरीर को जीवनभर पाला-पोसा और उसे सन्तुष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ दिये, उस शरीर के प्रति यह निर्भयता कि उसे पहाड पर यों ही फेंक दिया जाय और गद्धादि पक्षी खा जायें । निःसन्देह उन्हें आत्मा और शरीर का भेदज्ञान था । वे आत्मा को ही अपना और उपादेय मानते थे तथा शरीर को (पुद्गल-जड) और हेय समझते थे। तभी दृढता के साथ उक्त निर्देशन दिया था । ____ ध्यातव्य है कि यद्यपि किन्हीं आचार्यों के मतानुसार इंगिनीमरण संन्यास आरम्भ के तीन संहननधारी ही पूर्ण रूप से धारण के अधिकारी हैं, तथापि आचार्य महाराज ने आदि के तीन संहनन के धारक न होनेपर भी जो उक्त संन्यास को धारण किया और ३५ दिन तक उसका निर्वाह किया, जिसका अवलोकन उनके सल्लेखना महोत्सव में उपस्थित सहस्रों व्यक्तियों ने किया, वह 'अचिन्त्यमीहितं महात्मनाम्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy