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________________ १०४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे जिनसे यह स्पष्ट होता है कि महाराज व्रतदान के विषय में बहुत सावधानी रखते थे 1 वर्तमान पूज्य साधुवर्ग से प्रार्थना है कि वे आचार्य शांतिसागर महाराज की दृष्टि को ध्यान में रखकर उससे लाभ लेंगे । त्यागियों के विषय में उद्बोधन - एक बार मैंने आचार्य महाराज से पूछा था, कि यदि कोई मुनि आगम के आदेश को भूलकर स्वच्छन्द आचरण करे तो उस व्यक्ति के प्रति समाज को क्या करना चाहिए ? महाराज ने कहा, " 'चतुर व्यक्ति के द्वारा उस व्यक्ति को सन्मार्ग का दर्शन कराना चाहिए | उसके स्थितिकरण हेतु पूर्णतया उद्योग करना सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है । मैंने पुनः पूछा, यदि वह व्यक्ति किसी की न सुने तथा आगम की भी परवाह न करे, तब ऐसी स्थिति में क्या किया जाय ? क्या पत्रों में उसके विरुद्ध आंदोलन किया जाएं या नहीं ?' महाराज ने कहा, "यदि वह व्यक्ति नहीं सुनता है तो उसकी उपेक्षा करो। उसे आहार मात्र दो । उसके विरुद्ध पत्रों में लेख छापने से धर्म को क्षति पहुंचेगी । अपने धर्म के विरोधी लोग इसके द्वारा अपने धर्म की निंदा करेंगे । इससे अच्छे साधुओं के मार्ग में मिथ्यादृष्टियों के द्वारा बाधा भी आवेगी । इसलिए साधु की निंदा का लेख अथवा पत्रों द्वारा प्रचार करना अहितकारी है । जिस व्यक्ति की होनहार खराब होगी वह व्यक्ति कुमार्ग पर चलेगा। अपने कृत्य का वह फल पावेगा । उसका प्रचार कर धर्म को नुकसान पहुंचाना उचित नहीं । ” आशा है मुनिनिंदा के क्षेत्र में अग्रसर होनेवाले व्यक्ति आचार्य श्री के मार्गदर्शन द्वारा अपने कर्तव्य को पहिचानेंगे । इस युग के आदर्श तपस्वी पं. कैलासचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री कवलाना में आचार्यश्री का चातुर्मास था और हरिजन मन्दिर प्रवेश के विरोध में आचार्य महाराज ने अन्न का त्याग किया था। इससे समाज में बडी चिन्ता थी । फलतः एक बडा सम्मेलन बुलाया गया था। उसमें मैं भी सम्मिलित हुआ था । उस समय महाराज ने कहा था यदि आप लोगों में किन्ही बातों को लेकर परस्पर में मतभेद है तो रहो, किन्तु इस विषय में ऐकमत्य होना चाहिए। और मैंने महाराज के इस कथन का अनुमोदन किया था । वही उनका अन्तिम दर्शन था। फिर तो कभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका । जब उन्होंने आंखोमें मोतिया बिन्दु आ जाने के कारण समाधिपूर्वक मरण का निश्चय किया, जैन समाज में ही नहीं भारत भर में एक उत्सुकता और जिज्ञासा की लहरसी फैल गयी । वह एक आदर्श निर्णय था और उसका पालन भी उन्होंने आदर्श रूप में ही किया । आचार्य समन्तभद्रने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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