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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ देख उन्हों ने भी कह डाला कि महाराज चातुर्मास कटनी करे। वे जानते थे कि इतने २ बड़े लोगों की प्रार्थना के आगे हमारे अकेले की बात कौन सुनेगा । पर कहने में क्या हानि है ? आचार्य श्री के निर्णय की बडी आशा और उत्सुकता से लोग प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने चातुर्मास के लिए बचे दिनों की और स्थानों के माईलेज की गणना की। कुछ स्थान पास थे और कुछ अत्यधिक दूर, अतः उन्होंने कटनी के चातुर्मास की घोषणा कर दी। __ स्व. भाई हुकमचंदजी बहुत घबडाये और हर्षित भी हुए। वे सोचने लगे की इतने बड़े समुदाय की प्रार्थनाएँ बेकार हुईं । और हमारी प्रार्थना जिसका कोई दूसरा समर्थक भी साथ नहीं था स्वीकृत हुई इस बात का तो परमहर्ष था । पर हमने न तो अभी अपने नगर की पंचायत से अनुमति ली और अबतक यहां कोई चर्चा है । अचानक यह चर्चा पंचायत के सामने रखने पर न जाने पंचायत इन आगामी ५ माह के (लोंदमास था) चातुर्मास में होनेवाले संघ के व्ययभार तथा स्थानादि की व्यवस्था का भार सम्हालने की बात अपनी असमर्थता को देखते हुए स्वीकार करेगी या नहीं । उस समय क्या होगा ? वे शीघ्र कटनी आए । पंचायत हुयी । पंचायत ने तो अपनी असामर्थ्य देखकर तथा मेरे द्वारा किए गए अश्रद्धामूलक विरोध को पाकर तार द्वारा अस्वीकृति संघपति को इलाहाबाद भेजी। तार जवाबी था, पर उत्तर न आया। पत्र भी दिया पर जबाब न आया । दुबारा जवाबी तार दिया, उत्तर न आया। तब पंचायत ने २ व्यक्ति इलाहाबाद भेज कर इस आमंत्रण को लौटाने का निर्णय किया । भाग्य से यह कार्य मुझे तथा मेरे साथ पं. गुलजारीलालजी को सौंपा गया । हम दोनों इलाहाबाद पहुंचे । धर्मशाला में पहुंचते ही सामान रख नहीं पाए कुछ आदमियों ने हमारा परिचय पूछा । जब उन्हें बताया गया कि हम दोनों कटनी से आए तो लोगों ने हम दोनों को उचंगा उठा लिया और कहने लगे धन्य भाग्य हैं आप लोगों के। आप संघ को लेने को पधारे हैं। भाई क्यों न हो भाग्यवान जीव ही तो यह लाभ पा सकते थे। हम लोग तो भाग्यहीन हैं इत्यादि इत्यादि । हम हतप्रभ हो गए । ये क्या कह रहे हैं और हम क्या कार्यक्रम लेकर आए हैं । इनके सन्मुख अपना अभिप्राय क्या कहें। मालुम हुआ कल संघ कटनी तरफ के मार्ग की ओर रवाना हो चुका है और ८ मील पर ठहरा हुआ है, वहाँ आहार है । स्नानादि कर देवदर्शन कर श्रावकों द्वारा कराए गए नास्ता कर हम श्रावकों सहित मोटर से उस स्थान पहुंचे जहां संघ ठहरा था। पहुंचने पर देखा साधुसंघ आहार को निकल पडा है। सब आहार देखते रहे, हम दोनों इस विपत्ति से छटकारा पाने की योजना बनाते रहे । आहार की समाप्ति पर संघ अपने स्थान गया। हजारों श्रावक उनके साथ उस पंडाल तक गए। हम दोनों आग्रह किए जानेपर भी उन श्रावकों के साथ नहीं गए। हम संघपति के डेरे गए । उन्होंने परिचय पाकर अत्यंत स्वागत किया। भोजन का आग्रह किया। भोजन तो करना था। अतः उसे स्वीकृत करके भी पहिले निमंत्रण लौटाने की बात करना थी। एकान्त में बात करने की प्रार्थना की और एकान्त हो गया । बडे २ झूठे बहाने किए ताकि संघ लौट जाय और इज्जत भी हमारी रह जाय। पर संघपति के तर्कपूर्ण व भक्तिमूलक उत्तरों के सामने हमारी न चली । तारों व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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