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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ६२: श्रावण सुदी २ को तपस्वी श्री मोतीलालजी महाराज की ३३ दिन की तपस्या का पूर्णाहति का दिन था। उस दिन दया, पौषध आदि धार्मिक कार्य खूब हुए, अगता पलवाया गया। पारणे के दिन ४५० बकरों को अभयदान मिला । ३५० गरीबों को मिष्ठान खिलाया गया। एक दिन भगवानपुरा के रावत सुजानसिंहजी आपके दर्शनार्थ आये । भाद्रपद शुक्ला ६ को तपस्वी श्री छोटेलालजी महाराज के ५४ उपवास के पारणे का दिन था। जैन दिवाकरजी महाराज, तपस्वीजी महाराज एवं अन्य मुनिगण पारणा लेने को स्थान से बाहर पधार रहे थे कि महाराणा साहब की ओर से शाह रत्नसिंहजी और यशवन्तसिंहजी मुनिश्री को बोले कि 'आप राजमहलों में गोचरी हेतु पधारें। महाराणा साहब आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' आप, तपस्वीजी एवं चार सौ मनुष्यों के साथ शिवनिवास महल में पधारे । स्वयं महाराणा साहब ने स्वागत करते हुए कस्तूर-गर्म दूध एवं श्री एकलिंगजी का महाप्रसाद बहराया। आग्रह-भक्ति पूर्वक बहराने के बाद महाराणा साहब ने बड़ी प्रसन्नता प्रगट की। उस दिन गुरुदेव ४ बजे स्वस्थान पर पधारे । अनेक जागीरदार, ठाकुर एवं अन्य-अन्य घरों में जाने से समय लग गया। बहुत तरह के त्याग-प्रत्याख्यान हुए । ७०० बकरों को अभयदान मिला। गरीबों को मिष्ठान खिलाया गया । आगरा अनाथालय के अनाथ बच्चों के लिए सैकड़ों रुपयों की सहायता दी गई। गुरुदेव के पास इस चातुर्मास में अनेक जागीरदार, राजकुमार बराबर प्रवचन सुनने और शंका समाधान करने आया ही करते थे। महाराणा साहब के भतीजे, करजाली महाराज श्री चतरसिंहजी, जगतसिंहजी, अभयसिंह जी आदि, एवं बनेड़ा राजकुमार श्री प्रतापसिंहजी, करजाली राजकुमार जगतसिंहजी धार्मिक वार्तालाप करने आये। बनेड़ा, बदनोर, मैगा, भदेसर, देलवाड़ा आदि महाराणा साहब के सोलह और बत्तीस उमरावो और अन्य सरदारों ने एक ही समय नहीं, अनेक बार व्याख्यान श्रवण का लाभ लिया और अपने-अपने गांवों में पधारने की प्रार्थना की। ब्यावर से सेठ कुन्दनमलजी लालचन्दजी कोठारी सपरिवार और श्री जैन वीर मण्डल के सदस्यगण मुनिश्री के दर्शनार्थ आए। सेठ कुन्दनमलजी ने 'श्री जैन महावीर मण्डल उदयपुर' को फर्नीचर के लिए ३५० रुपये दिये, 'श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम' को ५२०० रुपये का मकान खरीद कर दिया और 'आगरा अनाथालय' के बालकों के भोजन के लिए ३००० रुपये का दान दिया। सेठजी उदार थे, उन्होंने परोपकार के बहुत से काम किये। आश्विन शुक्ला के दिन आपश्री गोचरी हेतु गणेशघाटी गये । हरिसिंह जी ने अपना घर पवित्र करने की प्रार्थना की थी। वहां किसी तरह आपश्री को ज्ञात हो गया कि इस हवेली में प्रति वर्ष दशहरे के दिन बकरे की बलि दी जाती है। आपका हृदय दयार्द्र हो उठा। आपने हरिसिंहजी से कहा "मैं यहाँ आया है तो आप मुझे कुछ भेंट दीजिए और मेरी भेंट यही है कि प्रतिवर्ष दशहरे के दिन होने वाली बकरे की बलि बन्द कर दी जाए।" हरिसिंहजी ने बकरे को अभयदान देने की प्रतिज्ञा की। उदयपुर की धानमण्डी में भी आप पधारे । लाधवास की हवेली के सामने विशाल चौक में व्याख्यान होने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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