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________________ :५५: उदय : धर्म-दिवाकर का । श्री जैन दिदाकर स्मृति-ग्रन्थ "जब जीव किसी के मारने से नहीं मरता तो हिंसा किसकी होती है और हिंसा करने वाले को क्यों रोका जाता है ?" महाराजश्री ने उत्तर दिया "आपका सोचना किसी सीमा तक स्वाभाविक है। लेकिन संसारी जीव पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) तीन बल (मन, वचन, काया), श्वासोश्वास और आयु इन दश प्राणों के आधार पर जीवित रहता है। इन स्थूल प्राणों के छेदन, भेदन, मारन, ताड़न आदि से जीव को असह्य वेदना होती है। इसलिए किसी भी प्राणी को मारना या वेदना पहुँचाना हिंसा है। अपनी मृत्यु से प्राणी मरे यह बात अलग है, उसे अवधि से पूर्व शरीर से पृथक् करना हिंसा है। जैसे कोई मनुष्य अपनी इच्छा से आपके पास से उठकर चला जाय तो कोई बात नहीं; किन्तु उसे धक्का देकर निकाला जाय तो दुःख होगा। इसलिए किसी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिए। और सज्जनों को हिंसा रुकवानी भी चाहिए। प्रश्न-जैनधर्म पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि में भी जीव मानता है। इनकी रक्षा कैसे हो सकती है ? उत्तर-जैनधर्म के इन पृथ्वी, जल आदि में जीव मानने के सिद्धान्त को तो आज विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है। वे भी इसमें जीव मानते हैं। गृहस्थी पूर्णरूप से इनकी हिंसा से तो नहीं बच सकते लेकिन अपनी शक्ति के अनुसार व्यर्थ की हिंसा से तो विरत हो ही सकते हैं। प्रश्न-तो फिर पूर्णरूप से अहिंसा-दयाधर्म का पालन कौन करता है ? उत्तर-जैन श्रमण करते हैं। वे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि से सर्वथा दूर रहते हैं। अपने आप भोजन आदि तो बनाते ही नहीं; अपने निमित्त बनाया हुआ भोजन आदि भी नहीं लेते। शुद्ध और प्रासुक भोजन-पानी आदि ही लेते हैं। प्रश्न-यदि ऐसा भोजन-पानी न मिले तो? उत्तर-श्रमण समताभाव में रहते हैं। वे अग्लान भाव से उपवास कर लेते हैं। तिरस्कारपुरस्कार, प्राप्ति-अप्राप्ति में भी उनकी समता भंग नहीं होती। प्रश्न-बड़ी कठिन साधना है जैन साधुओं की ? अब आप यह बतावें कि जैनधर्म का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण शास्त्र कौन-सा है ? उत्तर--सभी शास्त्र महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन भगवती और प्रज्ञापना अधिक विशाल हैं। राजा अमरसिंहजी ने और भी कई प्रश्न किये और अपने प्रश्नों का समाधान पाकर धन्य हो गये। गुरुदेव ने चन्दनबाला और अनाथी मनि की कथा विस्तत एवं रोचक ढंग से सना उसका भी राजा साहब पर बहुत प्रभाव पड़ा। राजा अमरसिंहजी ने भेंट देने का प्रयास किया तो आपने कह दिया-'हमारे लिए सबसे अच्छी मेंट यही है कि आप दया और उपकार के कार्य करिये ।' राजा अमरसिंहजी ने दया विषयक पट्टा लिखा। आपश्री मांडल पधारे तो वहाँ व्याख्यान से प्रभावित होकर लोगों ने मांस, मदिरा, तम्बाकू तथा झूठी गवाही देने का त्याग कर दिया। कोशीथल पधारे तो वहाँ के ठाकुर साहब पद्मसिंहजी के सुपुत्र जवानसिंहजी ने कितने ही त्याग किये और एक पट्टा दिया। रायपुर पधारने पर आपकी प्रेरणा से एक जैन पाठशाला की स्थापना हुई । एक दिन व्याख्यान में एक विधवा स्त्री द्वारा भैरव के मन्दिर पर रखा हुआ नवजात शिशु लाया गया तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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