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________________ श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ । एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ४८ : आपने पांच व्याख्यान देने का वचन दिया था, उसे कब पूरा करेंगे? पत्र के उत्तर की अभिलाषा है। आशा है पत्र पढ़ते ही अविलम्ब अपनी कुशलता का समाचार देंगे। संवत् १९७८, भादवा वदी १० आपका शुभेच्छुक ता० २८-८-१६२१ महन्त लालदास चतुर्भजाजी का मन्दिर किला (चित्तौड़गढ़) तपस्वी मुनि मयाचन्दजी महाराज की ३३ दिन की तपस्या का पूर्णाहुति दिन भाद्रपद सुदी ५ को था। उस दिन अपाहिजों को भोजन-वस्त्र का दान दिया गया। हिंसा पूर्णरूप से बन्द रही । बाघ आदि को भी दूध ही पिलाया गया। रतलाम नरेश महाराजा सज्जनसिंह जी अस्वस्थ थे; फिर भी भाद्रपद वदी १२ को प्रवचन सुनने आये। लोगों ने स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिलाया फिर भी महाराज उठे नहीं। उनके साथ काउन्सिल के सदस्य, सरदार तथा अन्य उच्च राज्यकर्मचारी भी थे। डेढ़ घंटे तक व्याख्यान सुनते रहे। दूसरे दिन जोधपुर स्टेट के दीवान के सुपुत्र श्री कान्हमल जी दर्शनार्थ आये । मंगलपाठ से मंगल रतलाम चातुर्मास की ही घटना है। महाराजश्री शौच के लिए जा रहे थे। प्रभात का समय था । नगर के बाहर एक बैलगाड़ी के समीप कोई आदिवासी करुण स्वर में क्रन्दन कर रहा था। आपने पूछा "क्यों रो रहे हो मामा ! क्या कुछ खो गया है ?" __ "सब कुछ चला गया, महात्माजी ! मेरा बीस वर्ष का जवान बेटा अब नहीं बचेगा। वैद्यों से निराश होकर घर ले जा रहा हूं।" आदिवासी ने आर्तस्वर में बताया। महाराज श्री के नेत्र सजल हो गये। हृदय में करुणा का स्रोत उमड़ने लगा । दर्याद्र होकर बोले 'भगवान का नाम सुनाए देता हूँ। तुम्हारे पुत्र का कल्याण होगा।" तदुपरान्त मांगलिक सुनाकर कहा"घर ले जाओ । इसका अब कल्याण हुआ ही समझो।" आपकी वाणी से उसके हृदय में आशा का संचार हआ। घर पहुंचा। दस दिन में उसका बेटा पूर्ण स्वस्थ हो गया। आदिवासी दम्पति के हृदय में गुरुदेव के प्रति असीम श्रद्धा जाग उठी। सबसे यही कहता कि 'यह तो मर चुका था; महात्माजी के मन्त्र से ही इसे जीवन मिला है।' आदिवासी दम्पति श्रद्धा से विभोर होकर कृतज्ञता प्रगट करने के लिए कुछ भेंट लेकर आये। लेकिन महात्माजी का पता ठिकाना तो कुछ मालूम नहीं था अतः उसी स्थान पर आ बैठे। जहां पहले गुरुदेव ने मांगलिक सुनाई थी। आतुर हृदय लिए प्रतीक्षा करने लगे। प्रतीक्षा फलवती हुई। महाराजश्री आते हुए दिखाई दिये। आदिवासी दम्पति विभोर हो उठे। चरण पकड़ कर भेट सामने रखते हुए बोले "बापजी ! आपके लिए टिमरू-चारोली और दस रुपये लेकर आए हैं। खेती पकने पर मक्का भी लाएंगे। इन्हें कृपा करके ले लो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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