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________________ : ४७ : उदय : धर्म-दिवाकर का श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ की प्रतिज्ञा ली। किशन खाटकी ने एकम, द्वितीया, पंचमी, आप्टमी, नवमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या के दिन अपने हिसापूर्ण व्यापार को बन्द रखने का नियम लिया। निम्बाहेडा में महावीर जयन्ती घटियावली से अनेक स्थलों पर विहार करते हुए आप निम्बाहेडा पधारे। चैत सुदी १३ आने वाली थी। आपने 'एकता' पर सरगभित प्रवचन दिया । लोगों पर बहत प्रभाव हुआ। परिणामस्वरूप महावीर जयन्ती का उत्सव समस्त जैन भाइयों ने मिलकर बड़ी धूमधाम से मनाया । इस उत्सव के मनाने से पहले लोगों ने आपसे पूछा था-'महावीर जयन्ती कैसे मनाएँ ?' आपने कहा-'महावीर भगवान तो सभी के हैं। सभी जैनियों को मिलकर मनाना चाहिए।' इस एक शब्द ने ही समाज में एकता के प्राण फूंक दिये । परिणामस्वरूप जैन समाज में इस अवसर पर ऐक्य हो गया। मिथ्या कलंक निवारण विहार करते हुए आप सादड़ी पधारे। वहाँ पाँच-सात स्त्रियों पर मिथ्या कलंक लगाया जा रहा था । अन्य स्त्रियां उन्हें छूती भी न थीं। कई संतों ने इस विवाद को मिटाने का प्रयत्न किया लेकिन सफल न हो सके। आपके उपदेश से यह विवाद समाप्त हो गया। इन स्त्रियों को समाज में उचित स्थान प्राप्त हुआ। सादड़ी से विहार करते हए आप नामली पधारे। वहाँ के ठाकूर साहब श्री महीपालसिंह जी तथा उनके बन्धु श्री राजेन्द्रसिंहजी आपके प्रवचनों से बहुत प्रभावित हुए। धानासुत, खाचरोद होते हुए रतलाम पधारे और श्रीमान् सेठ उदयचन्दजी के भवन में विराजे । वर्षावास शुरू हो गया। दूर-दूर से दर्शनार्थी आने लगे। प्रवचन-पीयूष पान करने के लिए राह चलते रास्तागीर भी रुक जाते । बड़े-बड़े राज्याधिकारी तथा रतलाम काउन्सिल के सदस्य पंडित त्रिभुवननाथ जी जुत्सी भी प्रवचनों का लाभ लेने लगे। यहाँ चित्तौड़ किला के चारभुजाजी के मन्दिर के महन्त श्री लालदासजी का भाव-भीना पत्र आया। जैनेतर वैदिक विद्वान द्वारा लिखा होने के कारण यह पत्र उद्धरण योग्य है । महन्तजी का पत्र निम्नानुसार है स्वस्तिश्री रतलाम नगर शुभस्थाने....."सकल गुण सम्पन्न, गंगाजलसम निर्मल, चरित्रनायक श्री चौथमलजी महाराज जोग किला चित्तौड़गढ़ से लिखी महन्त लालदास का प्रणाम स्वीकार करिए।......"स्वामी जी! आपके अमतमय वचनों को याद करके मेरा हृदय गद्गद हो जाता है। पाँच साधु के बीच में, राजत मानो चन्द । अमृत सम तुम बोलते, मिटत सकल भ्रम फन्द ।। दृष्टि सुहृद मुनि चौथ की, सबको करे निहाल । गति विधि र पलट तबै, कागा होत मराल ।। सद्गुरु शब्द सु तीर हैं, तन-मन कीन्हों छेद । बेदर्दी समझे नहीं, विरही पावे भेद ।। हरिभक्ता अलगुरुमुखी, तप करने की आस । सतसंगी साँचा यती, वहि देखू मैं दास ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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