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________________ :४३ : उदय : धर्म-दिवाकर का | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || - चौबीसवाँ चातुर्मास (सं० १९७६) : दिल्ली देवगढ़ के रावतजी के अत्यधिक आग्रह पर आप ब्यावर का चातुर्मास पूर्ण करके देवगढ़ पधारे । रावतजी ने बहुत सेवाभक्ति प्रदशित की। वहाँ से नाथद्वारे में लीलियाकुण्ड की पेड़ी पर प्रवचन देकर देलवाड़ा होते हुए उदयपुर की ओर विहार किया। जब आपश्री उदयपुर के निकट पहुँचे तो कुछ विरोधियों ने आकर कहा-महाराज ! हमने सुना है आपने उदयपुर पधारने की स्वीकृति दे दी है ? "हाँ"-महाराजश्री ने संक्षिप्त उत्तर दिया। "लेकिन""आपश्री को यह तो मालूम ही है कि आपके पास जो लोग प्रार्थना करने गये थे वे गैर जिम्मेदार थे। श्रीसंघ में उनका कोई स्थान नहीं है, अतः उनकी प्रार्थना का कोई महत्त्व नहीं है।" ..." तो इससे क्या फर्क पड़ता है ? प्रार्थना का मूल्य व्यक्ति के पद से नहीं, भावना से होता है। फिर मैंने जो वचन दिया है उसका पालन तो मुझे करना ही है।" "तो हमारा संघ आपका विरोध करेगा।" विरोध की बात सुनकर गुरुदेवश्री के मुख पर मुस्कान तर गई। बोले-“विरोध को मैं विनोद समझता है। उससे कभी घबराया नहीं, पर एक बात यह तो बताइये कि उदयपुर में आपके कितने घर है? "लगभग पांच सौ तो हैं ही...।' 'और पूरे उदयपुर में कितने घर हैं...?" "छत्तीस हजार !" "तो पाँच सौ घरों पर आप अपना अधिकार बनाये रखिए। बाकी लोग तो प्रवचन सुनेंगे ही...?" __ आपके इस निर्भीकतापूर्ण उत्तर से विरोधी झेंप गए । वे हाथ मलते ही रह गये और गुरुदेव ने खूब उल्लासपूर्ण वातावरण में नगर-प्रवेश किया । उनका आत्म-विश्वास इतना दृढ़ था कि वे कमी किसी के विरोध से डरे नहीं, जो ठीक समझा वह किया और सफलता सदा चरणों की चेरी बनती रही। नगर में दिल्ली दरवाजा के निकट लाधुवास की हवेली में आपश्री को ठहराया गया। आपश्री के प्रवचन सार्वजनिक स्थानों पर होने लगे और विभिन्न जातियों और वर्गों के हजारों लोग उमड़-उमड़कर आते थे। उदयपुर में श्रावक समाज दो दलों में विभाजित था। एक दल ने अपनी उपेक्षा होते देखकर गुरुदेवश्री का आगमन ही रोकने की व्यर्थ चेष्टा की, किन्तु जब प्रवचन में अपार भीड़ देखी तो उनके भी दिल बुझ गये। उदयपुर नरेश महाराणा फतेहसिंह जी के बड़े भाई हिम्मतसिंहजी ने गुरुदेवश्री की खूब सेवाभक्ति की। अधिकारी मानसिंह गिराही ने भी प्रवचन का लाभ लिया। अजमेर से दीवान बहादुर सेठ उम्मेदमलजी भी आ गए। कुंवर फतहलालजी तथा महन्त गंगादासजी भी प्रवचनों से बहुत प्रभावित हुए । महन्त गंगादासजी की भक्ति तो इतनी बढ़ गई कि कभी-कभी आप गोचरी न पधारते तो वह भी प्रसाद नहीं पाते । उदयपुर से नाई पधारे । वहाँ आपके उपदेश से कई लोगों ने मांस-मदिरा का त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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