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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ४२ : बाजार में हो रहा था, वहाँ जन-साधारण के बीच महाराजश्री का प्रवचन बड़े प्रेम व भक्ति से नियमित सुनने लगे, अपनी शंकाओं के समाधान के लिए आने लगे। रानियों ने भी व्याख्यान सुनने की इच्छा प्रकट की तो आदरपूर्वक आपको महल में बुलवाया । उस दिन महल में सर्व साधारण जनता को भी व्याख्यान सुनने का अवसर दिया । आसन के लिए बहुमूल्य गद्दे बिछवाये । किन्तु महाराजश्री तो निस्पृह थे। उन्हें गलीचों से क्या वास्ता ? आपने अपने साधारण वस्त्र पर ही बैठकर प्रवचन दिया। रावतजी साहब ने भी गलीचा उठवा दिया और सामान्य आसन ग्रहण किया । ॐकार शब्द की ऐसी युक्तियुक्त तथा विशद व्याख्या की कि प्रभावित होकर रावतजी ने साल के अधिक महीनों में शिकार न करने का तथा कुछ जानवरों को बिल्कुल ही न मारने का नियम लिया। कुछ दिन बाद महाराजश्री ने वहां से विहार किया तो रावतजी ५०-६० आदमियों के साथ उन्हें वापिस लौटाने के लिए चल दिये। महाराजश्री कुछ आगे निकल गए थे। देर न हो जाय इसलिए अकेले ही बड़ी शीघ्रता से चलकर महाराजश्री के पास पहुंचे और बड़े आग्रह तथा अनुनयपूर्वक उन्हें वापिस देवगढ़ में ले आए। अत्यधिक विनय करके कुछ दिन रोका। सं० १९७५ में फिर जैन दिवाकरजी महाराज को अनुनय-विनय करके बुलवाया और बहुत सेवा-भक्ति की। यह था गुरुदेव के प्रवचन का प्रभाव कि रावतजी साहब की घोर अरुचि श्रद्धा-भक्ति में परिणत हो गई। ___ महाराजश्री देवगढ़ से विहार करके कोशीथल पधारे । वहाँ के ठाकुर साहब श्रीपद्मसिंहजी के सपुत्र श्री जवानसिंहजी तथा उनके छोटे भाई दर्शनार्थ आए। उन्होंने अहिंसा का पट्टा लिखकर दिया। उन्होंने स्वयं भी अनेक प्रकार के त्याग किए। कोशीथल से आप चैत सदी १ को चित्तौड़ पधारे। यहाँ मनिश्री नन्दलालजी महाराज तथा मुनिश्री चंपालालजी महाराज भी विराजमान थे। टेलर साहब भी प्रवचनों में आने लगे। चित्तौड़ से विहार करके हथखंदे, निम्बाहेडा, नीमच होते हुए मन्दसौर पधारे। मन्दसौर में महावीर जयन्ती उत्सव धूमधाम से सम्पन्न हुआ। इसी समय रतलाम के श्रीसंघ ने आकर रतलाम पधारने की आग्रह-भरी प्रार्थना की। महाराजश्री रतलाम की ओर प्रस्थित हुए। रतलाम श्रीसंघ ने जेठ वदी ११ के दिन भैरवलालजी सुरिया (कोशीथल वाले) को समारोहपूर्वक दीक्षा दिलवाई। चतुर्दशी के दिन प्रवचन देने के बाद जावरा, मन्दसौर, नीमच होते हुए चित्तौड़ पधारे। वे नगर के बाहर ही ठहर गए । टेलर साहब सेवा में उपस्थित हए, रुकने की प्रार्थना की लेकिन समयाभाव के कारण आप रुक नहीं सके, विहार कर दिया। टेलर साहब डेढ़ मील तक पहुँचाने गए। चित्तौड़ से अनेक स्थलों पर विहार करते हुए आप ब्यावर पहुंचे और दीवान बहादुर सेठ उम्मेदमलजी की हवेली में चातुर्मास हेतु ठहर गए। आपके दर्शनों के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे। चुन्नीलालजी सोनी, जो सज्जन एवं धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे, ने आने वाले दर्शनार्थियों के स्वागत-सत्कार का भार अपने कन्धों पर उठा लिया। इस चातुर्मास में डॉ० मिलापचन्दजी ने सम्यक्त्व ग्रहण किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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