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________________ :३३ : उदय : धर्म-दिवाकर का श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ महाराजश्री के इन शब्दों ने बात समाप्त कर दी। टेलर साहब भी चकित हो, उठकर चले गए। कुछ दिन बाद टेलरसाहब एक चित्र लेकर आये और महाराजश्री को दिखाकर बोले __ "देखिए ! यह है परमाणु का चित्र ! आपके ग्रन्थों में वर्णन मात्र ही है और विज्ञान ने चित्र भी उतार दिया।" महाराजश्री ने मंद स्मितपूर्वक कहा"यह परमाणु का चित्र नहीं है, आप अभी तक परमाणु को समझ नहीं सके हैं।" "कसे ?" टेलर साहब चकराये। "जैन आगमों में परमाणु उसे कहा गया है जो अत्यन्त सुक्ष्म होता है। उसका चित्र नहीं लिया जा सकता।" "तब यह क्या है ?" "यह है स्कन्ध । इसका निर्माण अनन्त पुद्गल परमाणुओं के मिलने से होता है।" "आपकी बात कैसे मान ली जाय ?" "स्कन्ध टूट सकता है, उसका विखण्डन हो सकता है, लेकिन परमाणु का खंडन नहीं हो सकता। आप लोग इसे कुछ भी नाम दें, परमाणु ही कहते रहें, लेकिन जैन आगम दृष्टि से तो परमाणु अखंडित और अविभाज्य ही होता है।" टेलर साहब सोचने लगे-'जैन आगमों में अध्यात्म के साथ-साथ कितना भौतिक ज्ञान भरा हुआ है। जिस परमाणु ज्ञान को हम वैज्ञानिक लोग चार सौ वर्ष पहले ही प्राप्त कर पाये हैं उससे भी सूक्ष्म ज्ञान इनको हजारों-लाखों वर्ष पहले था।' और वे श्रद्धा से अभिभूत होकर गुरुदेव के चरणों में नतमस्तक हो गए। कुछ वर्षों बाद जब पश्चिमी वैज्ञानिकों ने अपने तथाकथित परमाणु का विखंडन कर दिया तो विज्ञान ने जैन आगम ज्ञान का लोहा मान लिया। टेलर साहब प्रवचनों में आते ही रहते थे। एक दिन उन्होंने अपने हार्दिक उद्गार व्यक्त किये "महाराज ! आपका धर्म बहुत ही उच्च आदर्शों पर स्थित है। भोग-प्रधान व्यक्ति के लिए इसका पालन करना बड़ा कठिन है। लेकिन मोक्ष की इच्छा करने वाले को तो इसी की शरण लेनी पड़ेगी।" उक्त शब्द टेलर साहब की जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा के परिचायक हैं। उन्होंने मांसमदिरा का आंशिक त्याग कर दिया था। उनकी पत्नी भी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा रखती थी। एक दिन उसने कुछ फल अपने नौकर के हाथ भेजे तो जैन दिवाकरजी महाराज ने नौकर को अपनी श्रमण-मर्यादा समझा कर वापिस लौटा दिये । टेलर साहब के मित्र एक अंग्रेज सेनाध्यक्ष (कर्नल साहब) महाराजश्री के दर्शनों को आये तो उनके प्रवचन सुनकर भक्त ही बन गए। जीवदया के भावना से प्रेरित होकर मोर और कबूतर को मारने का त्याग कर लिया। __ एक बार आपश्री के पास टेलर साहब एक शीशी में पाउडर (चूर्ण) लाये और भेंट करते हुए बोले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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