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________________ Jain Education International श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ "महाराज ! यह तो वनस्पतियों से बनी है । वैज्ञानिक विधि से निर्मित होने के कारण पूर्ण रूप से शुद्ध है। इसे तो आप से ही सकते हैं। यह पानी में डालते ही दूध बन जायगा ।" शीशी अस्वीकार करते हुए आपने समझाया "शुद्ध होने पर भी खाद्य पदार्थों का संग्रह करना हमारी साधु-मर्यादा के खिलाफ है । रात्रि को कोई मी खाद्य पदार्थ जैन साधु नहीं रखता । आवश्यक वस्तुएँ हमें गृहस्थों से मिल ही जाती हैं । फिर व्यर्थ का परिग्रह रखने से क्या लाभ ?" " आपके लिए भेंट लाई वस्तु को मैं वापिस तो ले नहीं जा सकता ।" टेलर साहब ने निराश स्वर में कहा । हो गए। एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ३४ : परिमाणस्वरूप वह शीशी रोगियों के उपयोग के लिए अस्पताल में भिजवा दी गई । टेलर साहब महाराजश्री तथा जैन संतों की निस्पृहता तथा त्यागवृत्ति को देखकर गद्गद वास्तव में टेलर साहब और उनकी पत्नी आपश्री के प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं निर्मल चरित्र से बहुत प्रभावित थे। उनके हृदय में असीम श्रद्धा और भक्ति थी। वे महाराजश्री के विदेशी भक्तों में अग्रगण्य थे। इसके बाद उन्होंने दो भावभीने पत्र भी भेजे थे। उन्नीसवां चातुर्मास (सं० १९७१) चित्तौड़ चातुर्मास पूरा करके महाराजश्री विहार करने लगे तो अन्य लोगों के साथ टेलर साहब भी आए। सभी की इच्छा थी कि आप विहार न करें लेकिन श्रमणधर्म के नियमों के कारण चुप हो जाना पड़ा। सभी ने महाराजश्री को भावभीनी विदाई दी। आगरा विचरण करते हुए मुनि श्री गंगरार पधारे। वहाँ वैर-वृत्ति के कारण कुसंप था। महाराज श्री के उपदेश से उनका विरोध समाप्त हो गया। वेश्याओं का उद्धार t I वहां से विहार करके आपभी हमीरगढ़, बिगाये होते हुये नन्दराय पधारे आपके उपदेशों से यहाँ के ओसवाल परिवार में आई धार्मिक शिथिलता दूर हो गई। कुछ दिन के प्रवास के बाद विचरण करते हुए आप जहाजपुर पधारे। वहाँ स्थानकवासी जैनों के पांच ही परिवार थे, लेकिन पूरा कस्बा ही आपके प्रवचनों को बड़े चाव से सुनता था। सभी उपस्थित होते थे तीन हजार से भी अधिक जनसमूह एकत्र हो जाता । वहाँ एक कुप्रथा थी - विवाह आदि अवसरों पर वेदया नृत्य की आपको जैसे ही इस कुप्रथा का पता चला तो आपने इसे बन्द कराने का विचार किया। आपकी प्रेरणा से यह कुप्रथा बन्द हो गई। समाज ने वेश्या नृत्य न कराने का निर्णय कर लिया । यह निर्णय सुनते ही वेश्याएँ हतप्रभ रह गई । जीवन निर्वाह की चिन्ता सताने लगी । सोचा- जिसने समाज को यह प्रेरणा दी है, वे ही हमें भी कोई राह बताएँगे।' एक दिन वाहरि भूमि को जाते हुए आपके मार्ग में वे उपस्थित होकर बोलीं "गुरुदेव ! आपकी प्रेरणा से समाज ने वेश्यानृत्य बन्द करने का निर्णय कर लिया। हमारी आजीविका का साधन छिन गया। अब आप ही बताइये हम क्या करें ? कैसे अपना पेट भरें ?" महाराज साहब ने जोशीली वाणी में उन्हें उद्बोधन दिया " बहनो ! नारी जाति का पद बहुत ही गौरवपूर्ण है । वह ममतामयी माता और स्नेह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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