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________________ : २६: उदय : धर्म-दिवाकर का श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ कम न तौलने की प्रतिज्ञा ली। आदिवासियों ने जैन दिवाकर जी महाराज के समक्ष निम्न प्रतिज्ञाएं लीं (१) गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज के प्रवचन सुनने के बाद अब हम लोग जंगल में दावाग्नि नहीं सुलगवायेंगे। (२) मनुष्यों को किसी भी तरह का त्रास न देंगे और किसी नारी की हत्या न करेंगे। (३) विवाह के समय मामा के यहां से आने वाले भैंसों और बकरों की बलि नहीं देंगे; प्रत्युत उन्हें 'अमरिया' बनाकर छोड़ देंगे। इन प्रतिज्ञाओं को हम हमेशा निभायेंगे। आदिवासियों का हर्षरव वातावरण में गुज उठा। जैन और जैनेतर सभी के मुख पर जैन दिवाकरजी महाराज की जय-जयकार गूंज रही थी। सभी हर्षित और संतुष्ट हुए । हजारों हिंसक व्यक्तियों को सहज प्रेरणा से ऐसी प्रतिज्ञाएँ करवाना एक असाधारण बात है। उदयपुर से विहार करके आप बड़ेगाँव (गोगूदे) पधारे। वहाँ से राव साहब श्री पृथ्वी सिहजी और उनके पौत्र श्री दलपतसिंहजी ने प्रवचनों से प्रभावित होकर प्रतिवर्ष बलिदान हेतु प्राप्त होने वाले दो बकरों को सदा के लिए अभय देने की प्रतिज्ञा ली। अन्य अनेक किसानों ने भी पंचेन्द्रिय जीव-हिंसा और मदिरापान का त्याग किया। वहाँ से नाथद्वारा, सरदारगढ़, आमेट, देवगढ़, नया शहर (ब्यावर) होते हुए अजमेर पधारे। मार्ग में सर्वत्र उपदेश प्रवचन होते रहे । लोगों पर यथेच्छ प्रभाव पड़ा। प्रवचन सभाओं में राजा, राव, सेठ, साहूकार, महाजन, किसान आदि सम्मिलित होते तो भंगी, चमार, भील आदि आदिवासी भी झुंड के झुंड बना कर आते और बड़े चाव से सुनते, तथा हिंसा एवं मदिरापान त्याग की प्रतिज्ञा लेते। अजमेर में श्वे० स्था० जैन कान्फ्रेन्स का अधिवेशन हो रहा था। वहाँ भी आपश्री ने संघ एकता विषय पर प्रवचन दिये। वहाँ से आपश्री चित्तौड़, निम्बाहेडा होते हुए जावद पधारे। वहाँ चातुर्मास हेतु उदयपुर श्रावक संघ की प्रार्थना आई। पण्डितरत्न श्री देवीलालजी महाराज और आपने उदयपुर में चातुर्मास किया । पन्द्रहवाँ चातुर्मास (१९६७) : जावरा उदयपुर चातुर्मास पूर्ण करके आप देलवाड़ा, कांकरोली, कुणज कुबेर होते हुए नाणदा पधारे। यहाँ के ठाकुर साहब तेजसिंहजी प्रति मास बकरे का बलिदान करते थे। आपके प्रवचन से प्रभावित होकर उन्होंने बकरे का बलिदान बन्द कर दिया। नाणदा से आप बागोर पधारे । बागोर में स्थानकवासियों का एक भी घर न था; तेरापंथियों के ही घर थे। वे लोग स्थानकवासी साधुओं का न सम्मान करते थे और न उनका प्रवचन सुनते थे, लेकिन जैन दिवाकरजी महाराज का आगमन सुनकर वे लोग बहुत प्रसन्न हुए। उत्साहपूर्वक स्वागत को आए । जैनेतर लोग माहेश्वरी बन्धुओं ने भी उत्साह दिखाया। श्रावगी बन्धुओं की सेवा भक्ति भी प्रशंसनीय रही। सभी ने आग्रहपूर्वक आठ दिन तक रोका । कई प्रवचन हए। प्रवचनों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र आदि सभी जातियों के लोग सम्मिलित होते और लाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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