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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ! एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : २८: मिला कि 'रतलाम में श्वे० स्था० जैन कान्फ्रन्स का अधिवेशन हो रहा है, आप अवश्य पधारें।' आपश्री रतलाम पधारे । रतलाम में चैत्र सुदी ११-१२ को राजकीय विद्यालय में आपके सार्वजनिक प्रवचन हुए। उपस्थित जनसमूह ने खूब प्रशंसा की। वहाँ मोरवी नरेश भी उपस्थित थे। वे भी बहुत प्रभावित हुए। कान्फ्रेन्स के जन्मदाता श्री अम्बादासजी डोसाणी ने प्रवचन समाप्ति पर अपने उद्गार व्यक्त किये "महाराज साहब के प्रवचन इतने प्रभावशाली हैं कि इनकी प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाना है। कान्फ्रेन्स का उद्देश्य तथा सारांश आपके प्रवचनों में आ गया है। अब तो हम सब लोगों को आपके उपदेशानुसार कार्य करना चाहिए।" तदन्तर अनेक क्षेत्रों में धर्म-जागृति करते हुए मन्दसौर पधारे और वहाँ चातुर्मास किया। इस चातुर्मास में बीसा ओसवाल नन्दलालजी ने दीक्षा ग्रहण की। चौदहवाँ चातुर्मास (सं० १९६६) : उदयपुर मन्दसौर चातुर्मास पूर्ण होने के बाद आप वहाँ से विहार करके नीमच तथा निम्बाहेडा होते हुए उदयपुर पधारे । वहाँ आपके प्रवचन शुरू हुए। श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी। राज-दरबारी लोग भी प्रवचनों में सम्मिलित होने लगे। हिन्दुआ कुलसूर्य उदयपुर नरेश सर फतेहसिंह जी महाराणा के दीवान तथा निजी सलाहकार श्रीमान् कोठारी बलवन्तसिंहजी ने महाराज साहब की खूब सेवा की। पतितोद्धार उदयपुर में प्रवचन गंगा बहाकर जैन दिवाकरजी महाराज वादी-मानमर्दक पं० श्री नन्दलालजी महाराज के साथ जन-कल्याण की दृष्टि से नाई गाँव पधारे। उस समय नाई गांव के निकट लगभग साढ़े तीन हजार आदिवासी भील एक मृत्युभोज के सन्दर्भ में एकत्र हुए थे। भील नेताओं ने आपश्री का उपदेश सुना तो उनका हृदय भी दया व सादगी की भावना से ओतप्रोत हो उठा। भील जाति सदियों से अज्ञानान्धकार में डूबी हुई है। सभ्यता और धर्म के संस्कार उन्हें कभी मिले ही नहीं। मांस-मदिरा आदि ही उनका भोजन है और शिकार, लूट-पाट आदि उनका पेशा। सदियों से यही उनकी परम्परा रही है। उन लोगों को सद्बोध देना विरले और विशिष्ट साधकों का ही काम रहा है। आपश्री ने बड़े ही सहज ढंग से उनको मानव-जीवन वे कल्याण की बातें और मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए सर्वसाधारण नियम आदि समझाए, हेय-उपादेय अर्थात् करने योग्य तथा न करने योग्य कार्यों का विवेचन किया । उपदेश का इच्छित प्रभाव हुआ। उनमें विवेक जागा। हिंसा आदि दुष्कृत्यों के कुपरिणामों का ज्ञान हुआ। पापों और दुर्व्यसनों के प्रति अरुचि उत्पन्न हुई। उनमें से भीलों के नेता व प्रमुख व्यक्तियों ने निवेदन किया "महाराज साहब! हम जीव-हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करते हैं, लेकिन नगर के महाजनों से कम न तौलने की प्रतिज्ञा भी कराइये।" आपश्री के संकेत से नगर के महाजन भी एकत्र हुए। आपका उपदेश सुनकर उन्होंने भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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