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________________ Jain Education International श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ - एक पारस पुरुष का गरिमामय जीवन : ३० : उठाते । इस समय वहाँ के निवासियों ने भुने चनों का सदाव्रत चालू किया जो आज तक चल रहा है । बागोर से आप भीलवाड़ा, मंगरूप, पारसोली, बीगोद, मांडलगढ़, बेगू, सींगोली, नीमच होते हुए मल्हारगढ़ पधारे। वहां आपके गुरुदेव आशुकवि श्री हीरालालजी महाराज ने आदेश दिया- 'अनुकूल अवसर पर प्रतापगढ़ जाकर सांसारिक नाते से अपनी पत्नी को सद्बोध देना ।' पत्नी मानकुंवर साध्वी बनो गुरुदेव के इस आदेश को सुनकर आप असमंजस में पड़ गए । हृदय मंथन चलने लगा । दीक्षा ग्रहण किये भी १३ वर्ष से अधिक समय बीत चुका था। मोह का बन्धन तो बिलकुल ही चुका था। फिर भी दो बातों का विचार था एक तो ससुर जी जल्दी ही आवेश में आ जाने वाले व्यक्ति थे और दूसरा मानकुंवर तो इस बात पर कटिबद्ध थी कि कहीं भी मिल जायें, वहीं आपको गृहस्थ वेश पहनाकर घर ले आऊँ आप अपने व्रतों में अडोल थे। संकल्प भी दृढ़ । । था; फिर भी विवाद और क्लेश से दूर ही रहना चाहते थे। इस सब स्थिति को जानते हुए भी आपने गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य की और प्रतापगढ़ पहुँचे। बाजार में प्रवचन की योजना बनी पूनमचन्दजी और मानकुंवर को भी आपके आगमन का पता चला । पूनमचन्द जी स्वयं तो आए नहीं, लेकिन मानकु वर प्रवचन में उपस्थित हुई । प्रवचन शुरू होते ही उसने उच्च स्वर से चीख कर कहा "मेरा खुलासा किये बिना यहाँ से जाएँ तो मेरी सौगन्ध है ।" लोग प्रवचन सुनने में मग्न थे। किसी ने उसकी बात पर ध्यान न दिया । अब तो वह जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने लगी। चीख-पुकारों से प्रवचन का रंग भंग हो गया। परिणामस्वरूप आपने प्रवचन देना बन्द कर दिया। इस स्थिति में आपने वहाँ रुकना उचित न समझा और मन्दसौर आ गए मानकुवर ने वहाँ भी पीछा किया और उछल-कूद मचाने लगी। बड़ी कठिनाई से समझा-बुझाकर श्रीमंघ ने उसे वापिस प्रतापगढ़ भेजा । जब आपश्री जावरा में विराज रहे थे; काफी शान्त, सौम्य वातावरण था; वहाँ भी मानकुँवर (पत्नी) जा पहुंची। उसका एक ही ध्येय था- 'किसी प्रकार आपको गृहस्थ वेश पहनाकर अपने साथ ले जाना ।' लोगों ने बहुत समझाया, लेकिन वह अपनी हठ से टस से मस नहीं हुई । ताल निवासी श्री हुक्मीचन्दजी की बहन ऍजाबाई की पुत्री धूलीबाई ने उसे बड़ी चतुराई से अच्छी तरह समझाया तो वह बोली " अच्छा ! एक बार मुझे उनसे मिला दो । खुलासा बातचीत होने के बाद जैसा वे कहेंगे वैसा मैं मान लूंगी।" उसकी यह इच्छा स्वीकार कर ली गई और चार छह धावक-धाविकाओं तथा कई साधुओं की उपस्थिति में उसे आपश्री के समक्ष लाया गया। उसने आते ही कहा "आपने तो मुझे छोड़ कर संयम ले लिया। अब मैं क्या करू ? किसके सहारे जिन्दगी बिताऊ ।" आपने शान्त गम्भीर स्वर में समझाया " तुम्हारा और मेरा अनेक जन्मों में सांसारिक सम्बन्ध हुआ है । परन्तु धर्म सम्बन्ध नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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