SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 585
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | श्री जैन दिवाकर म्मृति-अन्य। चिन्तन के विविध बिन्दु : ५२६ : मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता है । लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्व से इन्कार भी नहीं किया जा सकता है। स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है। अविद्या का उद्भव कैसे होता है, यह नहीं बताया जा सकता है । अश्वघोष के अनुसार--'तथता' से ही अविद्या का जन्म होता है ।२° डा० राधाकृष्णन् की दृष्टि में बौद्ध दर्शन में अविद्या उस परम सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतधर्म, शून्यता, धर्मधातु एवं तथता कहा गया है, की वह शक्ति है, जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों की श्रृंखला को उत्पन्न करती है । यह यथार्थ सत्ता ही अन्दर विद्यमान निषेधात्मक तत्त्व है । हमारी सीमित बुद्धि इसकी तह में इससे अधिक और प्रवेश नहीं कर सकती । २१ सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुसार इन्द्रियानुभूति के विषय इस जगत की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है या परतंत्र एवं सापेक्षित हैं, इसे यथार्थ मान लेना यही अविद्या है। दूसरे शब्दों में, अयथार्थ अनेकता को यथार्थ मान लेना यही अविद्या का कार्य है, इसी में से वैयक्तिक अहं का प्रादुर्भाव होता है और यहीं से तृष्णा का जन्म होता है । बौद्ध-दर्शन के अनुसार भी अविद्या और तृष्णा (अनैतिकता) में पारस्परिक कार्यकारण सम्बन्ध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या उत्पन्न होती है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में मोह के दो कार्य-दर्शन-मोह और चारित्र-मोह-हैं उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या के दो कार्य-ज्ञयावरण एवं क्लेशावरण हैं । ज्ञ यावरण की तुलना दर्शन-मोह से और क्लेशावरण की तुलना चारित्र-मोह से की जा सकती है । जिस प्रकार वैदिक-परम्परा में माया को अनिर्वचनीय माना गया है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में भी अविद्या को सत् और असत् दोनों ही कोटियों से परे माना गया है। विज्ञानवाद एवं शुन्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि में नानारूपात्मक जगत को परमार्थ मान लेना अविद्या है। मत्रेयनाथ ने अभूतपरिकल्प (अनेकता का ज्ञान) की विवेचना करते हुए बताया कि उसे सत् और असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता है। वह सत् इसलिए नहीं है क्योंकि परमार्थ में अनेकता यादत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है ।२२ इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों में अविद्या का स्वरूप बहुत कुछ वेदान्तिक माया के समान बन गया है। समीक्षा बौद्ध-दर्शन के विज्ञानवाद और शून्यवाद के सम्प्रदायों में अविद्या का जो स्वरूप बताया गया है वह आलोचना का विषय ही रहा है । विज्ञानवादी और शून्यवादी विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना के काल्पनिक प्रत्यय मानते है। दूसरे, उनके अनुसार अविद्या आत्मनिष्ठ (Subjective) है । जैन दार्शनिकों ने उनकी इस मान्यता को अनुचित ही माना है क्योंकि प्रथमतः अनुभव के विषयों को अनादि अविद्या के काल्पनिक प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को असत्य बताया गया है । जैन दार्शनिकों की दृष्टि में इन्द्रियानुभूति के विषयों को असत् नहीं माना जा सकता, वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलते हैं । उनके अनुसार ताकिक ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) और अनुभूत्यात्मक ज्ञान-दोनों ही यथार्थता का २० उद्धृत-जैन स्टडीज, पृ० १३६ २१ भारतीय दर्शन, पृ० ३८२-३८३ २२ जैन स्टडीज, पृ० १३२-१३३ पर उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy