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________________ : ५२७ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेचन श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || बोध करा सकते हैं । बौद्ध-दार्शनिकों की यह धारणा कि 'अविद्या केवल आत्मगत है' जैन दार्शनिकों को स्वीकार नहीं है । वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते हैं। उनकी दृष्टि में बौद्ध दष्टिकोण एकांगी ही सिद्ध होता है। बौद्ध-दर्शन के अविद्या की विस्तत समीक्षा आदरणीय श्री नथमल टांटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन जैन फिलॉसफी' में की है।२३ हमें विस्तार भय से और अधिक गहराई में उतरना आवश्यक नहीं लगता है। गीता एवं वेदान्त में अविद्या का स्वरूप गीता में अविद्या, अज्ञान और माया शब्द का प्रयोग हमें मिलता है। गीता में अज्ञान और माया सामान्यतया दो भिन्न-भिन्न अर्थों में ही प्रयोग हए हैं। अज्ञान वैयक्तिक है जबकि माया एक ईश्वरीय शक्ति है। गीता में अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अभाव है जिस रूप में वह जगत में व्याप्त होते हुए भी उससे परे है । गीता में अज्ञान विपरीत ज्ञान, मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्त्विक, राजस और तामस प्रकारों का विवेचन करते हुए गीता में यह स्पष्ट बताया गया है कि अनेकता को ययार्थ मानने वाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है। इसी प्रकार यह मानना कि परम तत्त्व मात्र इतना ही है, यह ज्ञान तामस है ।२४ यद्यपि गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एवं बन्धन का कारण माना गया है। क्योंकि यह एक भ्रान्त आंशिक चेतना का पोषण करती है और उस रूप में पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नहीं होता। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि गीता में माया ईश्वर की ऐसी कार्यकारी शक्ति भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत में अपने को अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि से माया परमार्थ का आवरण कर व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान से वंचित करती है, जबकि परमसत्ता की अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है। वेदान्त-दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ में अनेकता की कल्पना है। बहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है ।२५ इसके विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन यह सच्चा ज्ञान है। ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा में और परमात्मा में सभी को स्थित देखता है, उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्सा होती है और न उसे कोई मोह या शोक होता है ।२६ वेदान्तिक परम्परा में अविद्या जगत के प्रति आसक्ति एवं मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है जिससे यह अनेकता मय जगत अस्तित्ववान प्रतीत होता है। माया इस नानारूपात्मक जगत का आधार है और अविद्या हमें उससे बांधे हुए रखती है। वेदान्तिक-दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परमसत्ता की नानारूपात्मक जगत के रूप में प्रतीति है। वेदान्त में माया न तो सत् है और न असत् है उसे चतुष्कोटि विनिमुक्त कहा गया है। वह सत् इसलिए नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्तिक २३ विस्तृत विवेचना के लिए देखिए जैन स्टडीज, पृ० १२६-१२७ एवं २०१-२१५ २४ गीता १८।२१-२२ २५ बृहदारण्यकोपनिषद् ४।४।१६ २६ ईशावास्योपनिषद् ६-७ २७ विवेक चूडामणि माया निरूपण १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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