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________________ : ५२५ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेचन्श्री जैन दिवाकर.स्मृति-ग्रन्थ LIE प्रेरित करता है । परमार्थ और सत्य के सम्बन्ध में जो अनेक भ्रान्त धारणाएं आती हैं एवं असदाचरण होता है उनका आधार यही मोह है। मिथ्यात्व, मोह या अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परिणामस्वरूप व्यक्ति की परम मूल्यों के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाएँ बन जाती है । वह उन्हें ही परम मूल्य मान लेता है जोकि वस्तुत: परम मूल्य या सर्वोच्च मूल्य नहीं होते हैं। जैन-दर्शन में अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार में आचार्य कुन्दुकुन्द बताते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य जो पर-द्रव्य सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्रा ग्रामनगरादिक-इनको ऐसा समझे कि मेरे हैं, ये मेरे पूर्व में थे, इनका में भी पहले था तथा ये मेरे आगामी होंगे; मैं भी इनका आगामी होऊंगा ऐसा झूठा आत्म-विकल्प करता है वह मूढ़ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता है, वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है। जैन-दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठ (Subjective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन-दर्शन में मिथ्यात्व का अर्थ है-ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान । उसमें एकान्त या निरपेक्ष दृष्टि को भी मिथ्यात्व कहा गया है। तत्त्व का सापेक्षिक ज्ञान ही सम्यक्ज्ञान है और एकान्तिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है। दूसरे, जैन-दर्शन में मिथ्यात्व अकेला ही बन्धन का कारण नहीं है। वह बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी उसका सर्वस्व नहीं है। मिथ्या-दर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से आचरण या चारित्र दूषित होता है। इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है । नैतिक जीवन के लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि दूषित है, ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक आचरण भी सम्यक या नैतिक नहीं हो सकता । नैतिक जीवन में प्रगति के लिए प्रथम शर्त है, मिथ्यात्व से मुक्त होना। जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि का पता नहीं लगाया जा सकता, वह अनादि है, फिर भी वह अनन्त नहीं माना गया है। जैन-दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो भव्य जीवों की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है। आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कब से है यह पता नहीं लगाया जा सकता है, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पाई जा सकती है। एक ओर मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिकता का कारण सम्यक्त्व है। नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है और सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक आचरण होता है। बौद्ध-दर्शन में अविद्या का स्वरूप बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गयी है। अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है। जन्म-मरण की परम्परा और दुःख का मूल यही अविद्या है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती है। यह एक ऐसी सत्ता है जिसको समझ सकना कठिन है । हमें बिना अधिक गहराइयों में उतरे इसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना पड़ेगा । अविद्या समस्त जीवन की पूर्ववर्ती आवश्यक अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं; क्योंकि जन्म १६ समयसार २१-२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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