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________________ : ४६५ : नयवाद : विभिन्न दर्शनों के समन्वय की श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ नयवाद : विभिन्न दर्शनों के समन्वय की अपूर्व कला * श्रीचन्द चौरडिया, न्यायतीर्थ (द्वय) सम्पूर्ण पदार्थ सामान्य-विशेषरूप से ही अनुभव में आते हैं। अतः अनेकान्तवाद में ही वस्तु का अर्थक्रियाकारित्व लक्षण सम्यगप्रकार से घटित हो सकता है । सामान्य और विशेष परस्पर सापेक्ष हैं। बिना सामान्य के विशेष और विशेष के बिना सामान्य कहीं पर भी नहीं ठहर सकते । अतः विशेष निरपेक्ष सामान्य को अथवा सामान्य निरपेक्ष विशेष को तत्त्व मानना केवल प्रलाप मात्र है। जिस प्रकार जन्मान्ध मनुष्य हाथी का स्वरूप जानने की इच्छा से हाथी के भिन्नभिन्न अवयवों को टटोलकर हाथी के केवल कान, संड, पैर आदि को ही हाथी समझ बैठते हैं उसी प्रकार एकान्तवादी वस्तु के सिर्फ एकांश को जानकर उस वस्तु के सिर्फ एक अंश रूप ज्ञान को ही वस्तु का सर्वांशात्मक ज्ञान समझने लगते हैं। सम्पूर्णनय स्वरूप स्याद्वाद के बिना किसी भी वस्तु का सम्यग् प्रकार से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । सम्पूर्ण वादी पद-पद पर नयवाद का आश्रय लेकर ही पदार्थों का प्रतिपादन कर सकते हैं। क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्त स्वभाव अथवा धर्म है । नयवाद : परिभाषा, अर्थ जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो, उसे नय कहते हैं । खोटे नयों को दुर्नय कहते हैं। किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं। जैसे—यह घट ही है। वस्तु में अमीष्ट धर्म की प्रधानता से अन्य धर्मों का निषेध करने के कारण दुर्नय को मिथ्यानय कहा गया है। इसके विपरीत किसी वस्तु में अपने इष्टधर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय (सुनय) कहते हैं । जैसे-यह घट है । नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए नय को दुर्नय नहीं कहा जा सकता । प्रमाण सर्वार्थग्राही है तथा नय विकला देशग्राही है । नय और प्रमाण के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया जा सकता है । विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्र क्षमाश्रमण ने नयों को प्रमाण के समान कहा है। उपक्रम, अनुगम, नय, निक्षेप-ये चार अनुयोग महानगर में पहुंचने के दरवाजे हैं । प्रमाण से निश्चित किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान को नय कहते हैं । वस्तुओं में अनन्तधर्म होते हैं। वस्तु के अनन्त धर्मों में से वक्ता के अभिप्राय के अनुसार एक धर्म के कथन करने को नय कहते हैं । घट में कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन आदि अनन्तधर्म होते हैं अतः नाना नयों की अपेक्षा से शब्द और अर्थ की अपेक्षा प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म विद्यमान हैं । नय का उद्देश्य है माध्यस्थ बढ़े। प्रमाण, इन्द्रिय और मन--सबसे हो सकता है किन्तु नय सिर्फ मन से होता है क्योंकि अंशों का ग्रहण मानसिक अभिप्राय से हो सकता है। जब हम अंशों की कल्पना करने लग जाते हैं तब वह ज्ञान नय कहलाता है। नयज्ञान में वस्तु के अन्य अंश या गुणों की ओर उपेक्षा या गौणता रहती है परन्तु खण्डन नहीं होता।२ जो ज्ञान शब्दों में उतारा जा सके, जिसमें वस्तु को उद्देश्य और १ भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये ते उपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नयाः ।। २ सापेक्षाः परस्परसंबद्धास्ते नयाः -लघीय० का० ३० - अष्टशती, कारिका १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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