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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ | चिन्तन के विविध बिन्दु : ४६६ : विधेय रूप में कहा जा सके, उसे नय कहते हैं। अपनी विवक्षा से किसी एक अंश को मुख्य मान कर व्यवहार करना नय है। जैसे दीप में नित्य धर्म भी रहता है और अनित्य धर्म भी। यहाँ अनित्यत्व का निषेध न करते हए अपेक्षावशात् दीपक को नित्य कहना नय है। प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार में कहा है नीयते येन श्रुताख्य प्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यतः स प्रतिपत्त रभिप्रायविशेषो नयः। अर्थात् जिसके द्वारा-श्रत प्रमाण के द्वारा विषय किये हुए पदार्थ का एक अंश सोचा जाय-ऐसे वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। नयों के निरूपण का अर्थ है-विचारों का वर्गीकरण । नयवाद अर्थात् विचारों की मीमांसा। इस वाद में विचारों के कारण, परिणाम या विषयों की पर्यालोचना मात्र नहीं है । व्यवहार में परस्पर विरुद्ध दीखने वाले, किन्तु यथार्थ में अविरोधी विचारों के मूल कारणों की खोज करना ही इसका मूल उद्देश्य है। इसलिए नयवाद की संक्षिप्त परिभाषा है-परस्पर विरुद्ध दीखने वाले विचारों के मूल कारणों की खोजपूर्वक उन सब में समन्वय करने वाला शास्त्र।' नय के ज्ञाननय और क्रियानय-ये दो विचार भी हो सकते हैं । विचार सारणियों से पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जानना ज्ञाननय है और उसे अपने जीवन में उतरना क्रियानय । केवल संकेत मात्र से अर्थ का ज्ञान नहीं होता क्योंकि शब्दों में ही सब अर्थों को जानने की शक्ति होती है। नयवाद : परिभाषा-अर्थ की व्याख्या शाब्दिक, आर्थिक, वास्तविक, व्यावहारिक, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक के अभिप्राय से आचार्यों ने नय के मूलत : सात भेद किये हैं-यथा-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । बौद्ध कहते हैं-रूप आदि अवस्था ही वस्तुद्रव्य है । वेदान्त का कहना है कि द्रव्य ही वस्तु है, रूपादि गुण तात्त्विक नहीं हैं । भेद और अभेद का द्वन्द्व का एक निदर्शन है । नयवाद अभेद-भेद इन दो वस्तुओं पर टिका हुआ है।२ शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्यार्थिक नय समस्त पदार्थों को केवल द्रव्य रूप जानता है क्योंकि द्रव्य और पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं है, जैसेआत्मा, घट आदि । सभी पदार्थ द्रव्याथिक नय की अपेक्षा नित्य हैं। प्रदीप, घटादि सर्वथा अनित्य हैं, आकाश सर्वथा नित्य है-यह मानना दुर्नयवाद को स्वीकार करना है । वस्तु के अनन्त धर्मात्मक होने पर भी सब धर्मों का तिरस्कार करके केवल अपने अभीष्ट नित्यत्वादि धर्मों का समर्थन करना 'दुर्नय' है। वस्तुतः कोई भी पदार्थ सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य नहीं कहा जा सकता। जो अनित्य है वह कथंचित् नित्य है और जो नित्य है वह कथंचित् अनित्य है । वैशेषिकदर्शन में भी कहीं-कहीं पदार्थ में नित्य-अनित्य दो तरह के धर्मों की व्यवस्था उपलब्ध होती है जैसा कि प्रशस्तिकार ने प्रशस्तपादभाष्य में कहा है सा तु द्विविधा नित्या अनित्या च । परमाणुलक्षणा नित्या कार्यलक्षणा अनित्या। १ अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणस्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ -स्वयम्भू० १०३ २ सामान्य प्रतिभासो ह्यनुगताकारो विशेषप्रतिभासस्तु व्यावृत्ताकारोऽनुभूयते । -प्रमेयकमलमार्तण्ड, चतुर्थ खण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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