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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : ४६४ : कर देती है। इसी प्रकार कषाय की बीमारी को मिटाने के लिए उसी का स्मरण करते चले जायेंगे तो उस एक बीमारी के स्थान पर अन्य अनेक विकारों का जन्म हो जायेगा। विकारों के बार-बार परिशीलन से विकारों का नाश कदापि नहीं हो सकेगा। इसलिए बार-बार यह कहा जा रहा है कि कषायभाव का परिमार्जन करने के लिए निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध स्वभाव का ध्यान करने की प्रबल आवश्यकता है। वही शूद्ध ध्यान धर्म ध्यान कहलाता है। पूर्ण आत्म द्रव्य का दर्शन निश्चयनय से ही जब हम निश्चयनय की आँख से देखने का प्रयास करेंगे तो आत्मा स्वभाव से नित्य, शुद्ध, बुद्ध, असंग, ध्रव एवं अविनाशी प्रतीत होगी। व्यवहारनय की आँख से देखेंगे तो आत्मा अनित्य, अध्र व, अशुद्ध नजर आयेगी। दोनों नयों में से कौन-सा ऐसा नय है जो कि आत्मा को संसारी बनाता है, जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण कराता है। मोक्ष का चिन्तन होते रहने पर भी बन्धन क्यों हाथ लगता है ? अनन्तकाल व्यतीत हो गया तथापि मोक्ष हस्तगत क्यों नहीं हुआ। अमर व शाश्वत सुख की अनुभूति से क्यों वंचित एवं नासमझ रहे। अगर थोड़ी-सी गहराई से विचार करें तो यह बात बहुत शीघ्र हल हो जाती है। इसका मूल कारण है कि हमने पर्याय को ही देखने की कोशिश की है। पर्यायों को देखने से अखण्ड आत्म-द्रव्य या कोई भी द्रव्य पूरा का पूरा नहीं दिखाई देता। क्योंकि पर्याय का काल एक समय का होता है, और वह भी वर्तमान में ही। यदि हम पर्याय को देखने जायेंगे तो एक साथ दो, तीन या और इससे अधिक दृष्टिगोचर नहीं होगी। एक क्षण या एक समय में एक द्रव्य की या एक गुण की कितनी पर्याय दिखलाई दे सकती है ? सिर्फ एक पर्याय ही दिखलायी देगी। तो एक पर्याय ही तो द्रव्य नहीं है। एक द्रव्य में अनन्त पर्यायें होती हैं । भूतकाल की अनन्त पर्याय हैं, भविष्य काल की अनन्त पर्याय होती हैं और वर्तमान काल की एक पर्याय होती हैं। ये सब पर्यायें-चाहे व्यक्त हों या अव्यक्त-मिलकर एक आत्म-द्रव्य बनता है। आत्मा एक प्रदेश को नहीं कहा जा सकता, और न दो प्रदेश को ही आत्मा कहा जा सकता है तथा न तीन, चार आदि प्रदेश को भी आत्मा कहा जा सकता है । आत्मा असंख्यात प्रदेशी है । इसी प्रकार एक गुण की अनन्त पर्याय भी आत्मा नहीं है। भूत-भविष्य-वर्तमान की समस्त पर्याय मिलकर ही अखण्ड आत्म द्रव्य बनता है।। इसी शुद्ध, अखण्ड और शाश्वत आत्म द्रव्य को देखना हो तो स्वभावदृष्टि, द्रव्यदृष्टि या निश्चयनय की दृष्टि को ही अपनाना होगा। निश्चयनय ही शुद्ध आत्मद्रव्य को देखने में समर्थ है। यही आत्म-शुद्धि में प्रबल साधक है। यही मोक्ष साधना में प्रबलतम सहायक है। इसे अपनाकर ही कर्म, कषाय, संयोग, पर्याय-संयोग आदि से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। व्यवहारनय की उपयोगिता निश्चयनय से प्रथम अपनी दृष्टि को शुद्ध बनाकर व्यक्ति व्यवहारनय की दृष्टि से साधनापथ पर चलने का प्रयत्न करेगा तो उसे मोक्ष की मंजिल तक पहुँचने में आसानी होगी । अन्यथा, वह यदि निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान प्राप्त करके वहीं अटक जायेगा। अतः व्यवहारनय की इतनी-सी उपयोगिता है। उसे माने बिना कोई चारा नहीं है। क्योंकि निश्चय शुद्ध व्यवहारनय को छोड़ देने पर तीर्थ-विच्छेद की सम्भावना है, और निश्चयनय को छोड़कर केवल व्यवहारनय का अनुसरण अन्धी दौड़ है। दोनों नयों का अपनी-अपनी जगह स्थान है, परन्तु अध्यात्मसाधक की दृष्टि मुख्यतया निश्चय नय की ओर होनी चाहिए। दोनों नय परस्पर सापेक्ष हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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