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________________ : ४६३ : आत्मसाधना में निश्चयनय की उपयोगिता श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ - नहीं भागेगा । क्रोध से क्रोध नहीं मिटेगा, लोभ से लोभ नहीं हटेगा । क्रोध या लोभ को हटाना हो तो क्षमाभाव या संतोषभाव को अपनाना होगा। क्षमा के आते ही क्रोध अपने आप पलायन कर जायेगा । नम्रता के आते ही अभिमान चला जायेगा। सरलता का दीपक मानस मन्दिर में जगमगाते ही माया की गाढ़ तमिऱ्या दूर हो जायेगी । सन्तोष का हृदय में प्रकाश होते ही लोभ नौ दो ग्यारह हो जायेगा। जिस क्षण हम अन्धकार के पथ से आँख मूंदकर प्रकाश की ओर दृष्टि जमा देंगे तो फिर उलझनें या बुराई अपने आप काफूर हो जायगी । प्रकाश का मतलब है - निश्चयनय की दृष्टि, स्वभाव दृष्टि । जब हमारा उपयोग, हमारा ध्यान आत्मा के शुद्ध, निर्मल व शाश्वत स्वभाव की ओर लग जायेगा, उसी में तन्मय हो जायेगा तो यह निश्चित है कि क्रोधादि विकारभाव स्वतः ही नहीं आयेंगे और आत्मा अपने क्षायिक भाव को प्राप्त हो जायेगा । 1 विकारों के संस्कारों को कैसे भगाएं शुद्ध स्वभाव की स्थिति कोरी बातों से या केवल कहने मात्र से नहीं आयेगी आत्मा में वर्षो के जमे हुए क्रोधादि कषायभाव के संस्कार कैसे भाग जायेंगे ? यह एक चमत्कार ही है कि शुद्ध स्वभाव को प्राप्त करने के बाद आत्मा में पड़े हुए अशुद्ध संस्कारों की ओर ध्यान ही नहीं दिया जायेगा। उनके प्रति एकदम उपेक्षा हो जायेगी, तो वे भी कहां तक ठहर सकेंगे ? अपने आप अपनासा मुंह लेकर चले जायेंगे । किसी बनिये की दुकान पर कोई बातूनी आकर बैठ जाता है, तो वह दुकान पर बैठकर खाली बातें ही बनाता है। दुकानदारी में विघ्न डालता है । ग्राहकों का ध्यान सोदा लेने से हटा देता है | अतः वह दुकानदार उसे हटाना चाहेगा। अगर सीधा ही उसे यह कहा जाय कि भाग जा यहाँ से । यहाँ क्यों बैठा है ? या उसे धक्का देकर निकालना चाहे तो यह असभ्यता और अशिष्टता होगी । असभ्यता से किसी को हटाना अच्छा नहीं लगता तो वह दुकानदार उसे सभ्यता से भगायेगा | इसके लिए वह उससे बात ही नहीं करेगा । वह अपनी दुकानदारी में या अन्य कार्यों में लग जायेगा । जब दुकानदार उसकी उपेक्षा कर देगा तो वह आगन्तुक दुकान से अपने आप ही चला जायेगा। इस प्रकार उस बातूनी से स्वतः ही छुटकारा मिल जायेगा। हाँ, तो यही बात विकारों को भगाने के सम्बन्ध में है। अगर मन की दुकान पर विकार रूपी वाचाल आ धमके तो उसे हटाने के लिए उससे किनारा कसी करनी ही होगी। उसके प्रति उपेक्षा भाव करना ही होगा । उसकी तरफ से ध्यान हटाकर अपने शुद्ध स्वभाव रूपी माल की ओर ध्यान लगा लेवें। इस प्रकार क्रोधादि विकारों को बिलकुल प्रश्रय नहीं देने से वे अपने आप ही चले जायेंगे | इस तरीके या पद्धति को नहीं अपनाकर क्रोधादि विकारों को मिटाने के लिए बार-बार उनका स्मरण करेंगे और लक्ष्य देंगे तो कभी दूर नहीं होंगे। प्रकृति का अटल नियम है कि मनुष्य जिस बात को पुनः पुनः दुहरायेगा, वह उतनी ही मजबूत होती जायेगी । अतएव उसकी ओर का ध्यान छोड़ा जायेगा तब ही उस विकारभाव को छुटकारा मिल पायेगा । व्यवहारनय की दृष्टि से विचार विकल्पों का जनक व्यवहारनय की दृष्टि से अगर विकारों को हटाने के लिए विकारों की ओर ही झकिंगे, उन्हीं के सन्मुख होंगे तो विकारों का हटना तो दूर रहा किन्तु और अधिक पैदा होते चले जायेंगे । कहते हैं - ऐलोपेथिक दवा एक बीमारी को मिटाती या दबाती है, तो अन्य नई-नई बीमारियाँ पैदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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