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________________ : ३६५ : काव्य में सामाजिक चेतना के स्वर श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ मुनिश्री चौथमलजी महाराज के ✡ ✡ काव्य में सामाजिक चेतना के स्वर ✡ * श्री संजीव भानावत, जयपुर क्रान्तदृष्टा जैन दिवाकर पं० मुनिश्री चौथमलजी महाराज साहब सामाजिक क्रांति और चेतना के संवाहक रहे हैं। तत्कालीन समाज में जब रूढ़िगत मान्यताओं के प्रति लोगों की निष्ठा और अन्ध श्रद्धा बढ़ती जा रही थी, तब मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने अपने प्रवचनों तथा कविताओं में इन कुप्रथाओं तथा रूढ़िगत मान्यताओं के खिलाफ आवाज बुलन्द कर एक आदर्श समाज की स्थापना का आह्वान किया । विषय-वासनाओं से दूर, पुरुषार्थं तथा सत्कार्य में प्रवृत्त होना ही मनुष्य की विशेषता है । इस मर्म को समझाते हुए आपने कहा अत्यन्त परिश्रम से जिनको, उत्तम साधन मिल जाते हैं । सत्कार्य में उनको नियत करें, वे श्रेष्ठ पुरुष कहलाते हैं । ' मनुष्य जीवन में दुःख-सुख चक्र की भाँति आते रहते हैं। अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में हमें समता भाव रखते हुए अपने आचरण को नियन्त्रित रखना चाहिए। अपने सुख की खातिर दूसरों को पीड़ित या दुखित करना त्याज्य है— प्रतिकूल परिस्थिति होते भी, जो न्याय मार्ग अपनाता है । वह इष्ट पदार्थ को पाकर के, श्रेष्ठ पुरुष बन जाता है ॥ ३ अवांछनीय कार्य में संलग्न व्यक्ति कभी भी समाज में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्ति मानवता के लिए कलंक हैं, मनुष्यता के शत्रु हैं । इनकी मान, मर्यादा व इज्जत गलत कार्यों में प्रवृत्त होने से स्वतः समाप्त होती जाती है जो अनुचित कार्य करें उनकी, सब दुनिया हँसी उड़ाती है। और उनकी इज्जत हुर्मत भी, सब मिट्टी में मिल जाती है | वस्तुत: मानवता का चोला धारण करना ही पर्याप्त नहीं । स्नेह, सहयोग और सद्भाव पूर्वक जीवनयापन करना ही वास्तविक जीवन है । कथनी व करनी के अन्तर को समाप्त करने का आग्रह करते हुए तथा जीवन में विरोधाभास की स्थिति को नष्ट करने की प्रेरणा देते हुए मुनिश्री ने कहा Jain Education International यदि वेष साधु का धार लिया, तो इसमें क्या बलिहारी है । पर प्रगट साधुता को करना, यह जग में कठिन करारी है ॥ ४ दुष्ट के साथ दुष्टता का तथा सज्जन के साथ सज्जनता का व्यवहार तो सभी करते हैं किन्तु मनुष्य का बड़प्पन तो इस बात में है कि वह दुष्ट के साथ मी सज्जनता का व्यवहार करे । इसी भाव को अत्यन्त सुन्दर उदाहरण द्वारा समझाते हुए आपने कहा १ मुक्ति पथ, पृ० २ । ३ वही, पृ० २ । २ वही, पृ० ६ । ४ वही, पृ० २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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