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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३६६ : चन्दन को कुल्हाड़ी काटे है, वह उसे सुगन्धित करता है । सज्जन बनने वाला नर भी, यह उदाहरण मन धरता है।' जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने अपने अमृत वचनों में सदा नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना की है। मनुष्य के करणीय और अकरणीय कर्तव्यों को उन्होंने अत्यन्त सरल भाषा व लहजे में समझाया है। एक स्थान पर वे कहते हैं जो दुखियों पर नित दया करे, वह हगिज दुख नहीं पाता है। जो ढाये जुल्म बेकसों पर, वह गम में दिवस बिताता है ॥२ विभिन्न राष्ट्रों पर विजय पाना सरल है, विभिन्न जातियों या समूहों को गुलाम बना लेना बड़ी बात नहीं है किन्तु मन को गुलाम बनाना या उस पर नियन्त्रण स्थापित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है । मुनिश्री ने कहा बस यही विजय सर्वोत्तम है, सब विजयों का है सार यही । अपने ही मन पर विजय करो, विजयी का है आधार यही ॥ भारतीय संस्कृति व धर्म पर लम्बे समय से विदेशी आक्रमण होते रहे हैं। इन आक्रमणों के बावजूद हमारी संस्कृति ने, हमारे धर्म ने अपनी मौलिकता को नहीं त्यागा; वरन् इस संस्कृति के विशाल उदर में अन्य संस्कृतियां समाविष्ट हो गयीं। धर्म-संस्कृति की विभिन्न परिभाषाएँ दी गयी हैं तथा दी जा सकती हैं, लेकिन मुनिश्री की यह परिभाषा कितनी सरल और सुन्दर है चाहे तो जमाना पलट जाय, पर धर्म नहीं पलटाता है। जो पलट जाय वह धर्म नहीं है, धर्म तो ध्रुव कहलाता है ॥ पुस्तकीय ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है। पुस्तकों के अध्ययन से हमें बाहरी ज्ञान तो हो सकता है किन्तु आत्मज्ञान नहीं । आत्मज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान बताते हुए आपने कहा तन मन्दिर को है खबर नहीं, अंदर किसका उजियाला है। पर आत्मा उसको जान रहा, वह खुद उसका रखवाला है । मुनिश्री ने धर्म के नाम पर व्याप्त थोथे कर्म-काण्डों एवं बाहरी आडम्बरों पर चोट करते हुए धर्म के शुद्ध रूप की प्ररूपणा की और सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी जब हाकिम से मिलने के लिए, बढ़िया पोशाक सजाते हो। तो मालिक से मिलने के लिए, क्यों रूह न पाक बनाते हो ॥ क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय तथा मांसाहार, मदिरापान, द्यूतक्रीड़ा, चौर्य-वृत्ति, परस्त्रीगमन, धूम्रपान जैसे कुव्यसन मनुष्य के लिए अत्यन्त घातक हैं। इन व्यसनों के चक्र में से व्यक्ति के सभी प्रगति द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं। वह अपना आत्मघात तो करता ही है, साथ ही परिवार की खुशहाली व समृद्धि के लिए भी अभिशाप सिद्ध होता है। मुनिश्री ने समाज में व्याप्त इन कुव्यसनों के घातक परिणामों के प्रति मानव-मात्र को सचेत किया। १ मुक्ति पथ, पृ० ५। ३ वही, पृ०३। ५ वही, पृ० १। २ वही, पृ० १। ४ वही, पृ० ११। ६ वही, पृ० १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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