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________________ : ३८१ : जैन इतिहास के एक महान् तेजस्वी सन्त श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ६. दुःखियों पर क्या सत्पुरुषों का स्वभाव ही है कि सब का उपकार करते हैं। इस कार्य में उन्हें आनन्द आता है। मुनिश्री का जीवन परोपकार में ही लगा रहा । उनके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति अपार करुणा थी। उनकी लोक-कल्याणकारी उपदेश-वाणी राजप्रासादों से लेकर साधारण झोंपड़ियों तक में दिनानुदिन अनुगुंजित रहती थी। जिधर भी, जब भी निकल जाते, सब ओर दया, दान, सेवा, सहयोग के रूप में करुणा का सागर उमड़ पड़ता था। उनके उपदेश का प्रभाव था कि हजारों राजकर्मचारियों ने रिश्वत न लेने की प्रतिज्ञा की। हजारों ने मद्य-मांस छोड़ा । वेश्याओं ने घृणित धन्धे त्यागे । समाज-उत्थान की दिशा में अनेक कार्य हुए। अनेक विद्यालय स्थापित हुए। वात्सल्य फण्डों की स्थापना हुई । अनेक लोकोपकारी संस्थाएँ उनकी स्मृति में समाज-सेवा का कार्य कर रही हैं। मातृजाति के कल्याण के लिए कितनी ही प्रभावशाली योजनाएँ उनकी सत्प्रेरणा से साकार हुई। उनका सान्निध्य ही इतना प्रभावकारी था कि लोगों का जीवन सदाचारमय हो जाता था। अनेक पत्थर दिल इन्सान पिघले. पापी सच्चरित्र हो उठे-यह सब उनके विराट व्यक्तित्व का प्रभाव था। आज उस महान् सन्त की जन्मशती मनाई जा रही है। श्रद्धा-सुमन चढ़ाये जा रहे हैं। मेरा भी उन्हें शत-शत नमन ! - छोटी-सी भेंट------------------------------------------- ----- -0--0-3 ----0-00----- ____ गुरुदेव श्री एकबार उदयपुर महाराणा के निवेदन पर राजमहल में प्रवचन करने पधारे। मैं भी उस समय गुरुदेव के साथ था। प्रवचन में स्वयं महारानीजी ३ भी उपस्थित थीं और भाव-विभोर होकर सुन रही थीं। प्रवचन समाप्त होने पर महारानीजी ने एक चाँदी की बड़ी थाली में रुपये (कलदार) भरकर गुरुदेवश्री I के भेट भेजी । गुरुदेवश्री ने पूछा- "यह क्या ? क्यों ?" "यह महारानी साहिबा की तरफ से एक छोटी-सी भेंट है....?" गुरुदेव ने स्मितपूर्वक कहा-"हम साधु अपरिग्रही हैं। ऐसी भेंट नहीं लेते। मेंट देनी हो तो भेंट अवश्य लेंगे, पर त्याग-व्रत की त्याग की थाली में व्रतों के २ रुपये रखकर हमें दीजिए, हमें वही चाहिए।" -केवल मुनि ८0-0--0--0--0-0--0--0-0--0--0--0--0--0 h-0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-0-0--0--0--0--0--0--0--0--0--0 १५ (क) नीतिशतक, ७६ (ख) सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः। -नीतिशतक, ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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