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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ जैल दिवाकर स्मृति इन्ट व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३८२ : श्री जैन दिवाकरजी महाराज के सुधारवादी प्रयत्न, राजनीतिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में -पीयूष कुमार जैन सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ हर व्यक्ति परिवर्तन चाहता है, किन्तु इन परिवर्तनों की मांग के पीछे उसके स्वयं के स्वार्थ भी जुड़े रहते हैं इसलिए वह सुधारक कहलाने का योग्य अधिकारी नहीं है। समाज-सुधारक वही कहलाता है जिसमें स्वार्थमय भावना न हो, जो सच्चे मन से चाहता हो कि समाज के अन्दर घुसी हुई बुराइयां, समाप्त हों, चाहे उसमें मेरे व्यक्तिगत हित का बलिदान ही क्यों न हो। ऐसे ही व्यक्ति के प्रयत्न अवश्य सफल होते हैं और वह निश्चय ही समाज में सुधार ला सकता है। सन्त समुदाय एक ऐसा समुदाय जो दलितों की ओर देखता है उसके मन में दया के भाव उत्पन्न होते हैं वह उनका उद्धार करने की सोचता है जबकि सामान्य व्यक्ति के मन में घृणा का भाव उत्पन्न होता है, वह चाहता जरूर है कि इनकी बुराइयाँ जरूर दूर हों, किन्तु प्रयत्नशील नहीं होगा जबकि सामान्य से ऊंचा उठा व्यक्ति शीघ्र ही प्रयास शुरू करेगा। वह व्यक्ति जिसका ध्येय सुधार ही हो वह हर क्षेत्र में सुधार करने का इच्छुक रहता है और सफल होता है, किन्तु कुछ बाधाएँ जरूर आती हैं वह बुद्धि कौशल से उन बाधाओं को दूर कर सकता है। हर क्षेत्र में सुधार करने वाला व्यक्ति बिरला ही होता है और इन बिरलों में ही “जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज" का नाम भी प्रतिष्ठा के साथ लिया जा सकता है। महाराज श्री के सामाजिक सुधार के लिए किये गये कार्य महाराजश्री का जीवन हमेशा पतितों के उद्धार में लगा रहा । आपने सभी जातियों को एक साथ बैठाकर उनको जैन धर्म के सिद्धान्तों के बारे में समझाया । आप उस साहूकार की तरह से थे, जो मूल से अधिक ब्याज पर ध्यान देता था, आपने अपने समाज से अधिक पतितों के उत्थान के लिये कार्य किया। सन्त जीवन काँटों से भरा पथ होता है और जिसमें जैन समाज का साधु तो अनेक मर्यादाओं के बंधन से बँधा हुआ होता है। वह अपने समाज को ही उपदेश देकर शान्त हो जाता है, लेकिन उसके परिणामों की ओर ध्यान नहीं देता है। जबकि आपने उसी पथ पर चलते हुए, मर्यादाओं के बन्धन को मानते हए उन जातियों का उत्थान किया जो सामाजिक दृष्टि से निर्बल एवं आर्थिक दृष्टि से निर्धन थे। गुरुदेव ने उनकी निर्बलता को पहचाना, उनको लगा कि इन जातियों का सामाजिक जीवन जीने का पथ गलत है। यदि इनको पथ-प्रदर्शक मिल जाये तो निश्चय ही इनका उत्थान संभव है और महाराजश्री उनके उत्थान में जुड़ गये। इस सम्बन्ध में उनके जीवन से जुड़े हुए कुछ प्रसंग निम्न हैं : भीलों को अहिंसा का पालन कराना ___ भील जाति उस समय पशुओं का वध कर उनको बेचते थे और समूह में पशुओं को मारने के लिए वनों में आग लगाकर उन्हें जीवित ही पकाकर उनका भक्षण कर जाती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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