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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणे : ३८०: साथ सत्य का निर्वाह नहीं हो सकता । एक म्यान में दो तलवारें कैसे समा सकती हैं ?" ठीक भी है, जैन 'दिवाकर' का असत्य रूपी रात से मेल रह भी कैसे सकता है ? वे एक बार जो कह देते, उसकी रक्षा करते । एक घटना यहाँ प्रासंगिक होगी। एक बार मुनिश्री ने कुछ भक्तों की प्रार्थना पर 'उदयपुर' पधारने की स्वीकृति दे दी। बाद में कुछ लोगों ने वहाँ न आने का अनुरोध किया। उन लोगों का कहना था कि प्रवचन में जनता नहीं आएगी, जिनशासन तथा मुनिश्री की अवमानना होगी। किन्तु महाराजश्री ने स्पष्ट कहा-"मेरे प्रवचन में जनता आएगी या नहीं, इस आशंका से मैं कभी चिन्तित नहीं होता । मेरे मुख से जो शब्द निकल गए हैं, मुझे उनका पालन अवश्य करना है।" इस पर उन लोगों ने कहा-"हमारा संघ आपका विरोध करेगा।" पर महाराजश्री ने पुन: अपना आत्मविश्वास दोहराते हुए कहा--"किसी विरोध से मैं भयभीत होने वाला नहीं । हम तो उग्र परीषहों से भी नहीं घबराते।" कहते हैं, महात्मा के मुख से जो वचन निकल जाता है, वह सत्य हो जाता है। प्रकृति भी सन्तों के कहे वाक्य की सत्यता की रक्षा करती है। एक बार इन्होंने रतलाम में (सं० १९७८ में) एक आदिवासो मरणासन्न युवक के अच्छे होने की मंगल-कामना व्यक्त की थी, और आश्चर्य की बात है कि वह युवक अच्छा हो गया था। ७. विद्वानों तथा पूज्यों का आदर मुनिश्री जी सभी विद्वानों तथा वरिष्ठ साधुओं के प्रति आदरभाव बरतते । संसारी पक्ष की माता श्री केसर बाई का इनके जीवन-निर्माण में अपूर्व योगदान था । मातृ-उपकार के प्रति मुनिश्री सद विनम्र, कृतज्ञ और आदर-भाव युक्त रहे। ८. कीर्ति रक्षा सत्पुरुष अपनी सत्पुरुषता की रक्षा हेतु सतत प्रयत्नशील रहता है । मुनिश्री भी अपने श्रामण्य की रक्षा हेतु हमेशा चेष्टावान रहते । श्रामण्य का मूल समता" मुनि का मूल ज्ञान-ये दोनों मुनिश्री में अनुपम थे। साधु-पुरुष सामान्य गृहस्थ की अपेक्षा अधिक साधनामय होता है । साधु का जीवन निरन्तर आत्मिक साधना की लौ में पल-पल विजित होता रहता है । मुनिश्री भी जीवन का एक-एक क्षण निरर्थक न खोते । स्वाध्याय में लीन रहते, प्रवचन करते, तत्व-चर्चा करते, चतुर्विध संघ की उन्नति हेतु जो कुछ कर सकते करते-ये ही सामान्यत: उनकी दिनचर्या थे। कोई उन्हें आराम करने के लिए कहते, तो वे उत्तर देते-"साधक के लिए आराम कैसा? हम श्रमण हैं, श्रम हमारा कर्तव्य है।" निन्दा, विकथा और अनर्गल व्यर्थ की बातों की ओर ध्यान लगता न था। कदम-कदम पर आत्मोदय ही उनका चरम लक्ष्य था। ७४ वर्ष की आयु में भी उनका ३-४ घण्टे निरन्तर जप-ध्यान चिन्तन प्रतिक्रमण करना और उस समय नींद को एक पल भी न आने देना आश्चर्यजनक है। १३ समयाए समणो होइ -(उत्त० सू० २५. ३१) १४ नाणेण य मुणी होइ -(उत्त० सू० २५. ३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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