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________________ | श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३४४ : रखी गई । आपकी प्रेरणा से वैमनस्य सोमनस्य में बदल गया। चित्तौड़ के हाकिम साहब ने इस एकता की खुशी में प्रीति-भोज भी दिया। चित्तौड़ चातुर्मास के बाद जब आप गंगरार पधारे तो वहां भी कई जातियों के मध्य चल रहे संघर्ष को नष्ट किया। गंगरार से आपश्री का पदार्पण जहाजपुर में हुआ । वहाँ के जैनेतर समाज के मध्य चल रहे द्वन्द्व की आपकी ही प्रेरणा से इतिश्री हुई। इन्द्रगढ़ के ब्राह्मण समाज में ४० वर्ष से फूट अपना अड्डा जमाए हुई थी। एकता के अनेक प्रयास हुए किन्तु सब विफल रहे । इन्द्रगढ़ नरेश भी इस द्वेष-कलह को न मिटा सके । दोनों दलों के मुखियाओं को जब इन्द्रगढ़ नरेश ने अपने समक्ष बुलाकर आपसी कलह मिटाने की बात कही तो उन लोगों ने दो-ट्रक जबाब दे दिया-अन्नदाता ! आप और कुछ भी कहें, सिर माथे है, इस बात के लिए मत कहिए।" नरेश चुप हो गये। सं० १६६२ का चातुर्मास कोटा में सम्पन्न कर गुरुदेवश्री इन्द्रगढ़ पधारे । प्रवचनों में विशाल जनमेदिनी उमड़ पड़ती थी । ब्राह्मण-समाज के दोनों दल के ही सदस्य व्याख्यान में आते थे। एक दिन एकता, संगठन तथा प्रेम का प्रसंग उपस्थित कर गुरुदेवश्री ने प्रवचन सभा में ही उन लोगों से पूछा-आप लोग संघर्ष चाहते हैं या एकता ? दोनों दल के मुखिया, जो प्रवचन से गद्गद हो उठे थे-सहसा बोल पड़े--"महाराज ! संघर्ष से तो हम बरबाद हो गये, अब तो एकता चाहते हैं।" गुरुदेव का संकेत पाकर दोनों दल के मुखिया खड़े हुये, गुरुदेव के निकट आये। गुरुदेवधी ने मधुर हृदयस्पर्शी शब्दों में कहा-"अगर एकता चाहते हो तो पुराने वरद्वष को आज, अभी, यहीं पर समाप्त कर डालो और हाथ जोड़कर एक-दूसरे से माफी माँगो, प्रेम पूर्वक मिलो।" लोग विस्फारित नेत्रों से देखने लगे । दोनों पार्टी के नेताओं पर जैसे सम्मोहन हो गया हो, वे हाथ जोड़कर एक-दूसरे से माफी मांगने लगे और परस्पर गले मिले । क्षणभर में तो जैसे पूरी सभा एक दूसरे से माफी मांगकर गले मिलने लगी । सर्वत्र एक मधुर वातावरण छा गया और असम्भव प्रतीत होने वाला कार्य सम्भव क्या, साक्षात् हो ही गया। पूरी सभा में प्रेम की वर्षा हो गई। इस दृश्य से प्रभावित होकर राज्य के मन्त्रीजी ने नरेश को बम्बई तार भेजा-'यहाँ पर एक ऐसे जैन साधु आये हैं जिनकी वाणी में जादू है। ब्राह्मण समाज का झगड़ा उन्होंने मिटा दिया है।' नरेश ने चकित होकर वापस तार दिया-'साधुजी को रोको, मैं आ रहा हूँ।' और इन्द्रगढ़ नरेश ने आकर गुरुदेव के दर्शन किये, अपनी बाग वाली कोठी में प्रवचन कराये । गुरुदेवश्री झाबुआ की ओर जा रहे थे, मार्ग में पड़ा 'पारे' गांव । वहाँ भी फट का साम्राज्य था। आपके उपदेशामृत से एकता की रसधारा बह पड़ी। फुट-राक्षसी का पलायन हो गया। संवत् १६७६ में मालवा प्रदेश से पुनः गंगरार पधारे। वहाँ दो जातियों की पारस्परिक गुटबन्दी आपकी प्रेरणा से ही समाप्त हई। सांगानेर में माहेश्वरी लोगों का वैमनस्य आपश्री की प्रेरणा से मिटा । पोटला में माहेश्वरी लोगों की दलबन्दी आपके ही द्वारा समाप्त हुई। पाली संघ में बहुत दिनों से वैमनस्य चला आ रहा था । अनेक सन्तों के प्रयास भी एकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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