SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ३४३ : समाज-सुधार की दिशा में युगान्तरकारी प्रयत्न श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ । समाज सुधार की दिशा में श्री जैन दिवाकरजी मानव को एकता तथा प्रगति का मुक्त वातावरण सदियों से फट तथा करीतियों को कारा में बन्द मानव को एकता तथा प्रगति का मुक्त वातावरण प्रदान करने की बोलती कहानी । यूगाह तरकारी प्रयत * श्री केवल मुनि सामाजिक कुप्रथाएं, कुरीतियाँ भी एक प्रकार की बुराई है, एक गन्दगी है, उनका स्वभाव है कि वे धीरे-धीरे समाज के स्वच्छ वातावरण में प्रवेश करती है, उसे मैला करती है। जब गन्दगी बढ़ जाती है तो समाज का वातावरण दूषित हो जाता है। भले-सज्जन पुरुषों को साँस लेने में भी कठिनाई होने लगती है। तब उसके सुधार की आवश्यकता अनुभव की जाती है।। साधक भी जिस समाज में रहता है, उससे सर्वथा निर्लिप्त नहीं रह सकता है। दुषित वातावरण में उसकी साधना की चर्चा सुचारु रूप से नहीं चल पाती। दूसरे साधक का स्वभाव ही परोपकारी होता है। इसीलिए तो वह पैदल विचरण करता है ताकि जन-जाति के संपर्क में आकर वह उसकी नब्ज को पहचाने और फिर हृदय-स्पर्शी उपदेश द्वारा उसकी जीवन दिशा को बदले । संत का मार्ग हृदय परिवर्तन का मार्ग है । वह जन-जीवन में व्याप्त कुप्रथाओं, कुरीतियों, हानिकारक परम्पराओं तथा फूट एवं वैमनस्य को मिटाने में अपनी शक्ति लगा देता है। जैन दिवाकरजी महाराज को तत्कालीन समाज में फैली बुराइयाँ दृष्टिगोचर हुईं। उन्होंने इन सबको समाप्त कर डालने का सफल प्रयास किया, अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व और चमत्कारी स्तृत्व से समाज को आन्दोलित किया, उचित मार्ग-दर्शन दिया। उन्होंने समाज को युगानुरूप प्रेरणा देकर उन्हें सुधारों की ओर प्रवृत्त कर स्वच्छ जीवन बिताने हेतु प्रेरित किया। मन-मुटाव और फूट को विदा फूट सदा हो विनाशकारी है और एकता निर्माणकारी । विशृखल समाज पतन के गर्त में गिरता ही चला जाता है। अन्य बुराई को भी तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि समाज में ऐक्य भावना न हो। जैन दिवाकरजी महाराज जहाँ भी पधारे, उन्होंने एकता को सर्वप्रथम महत्व दिया। जैन दिवाकरजी महाराज के चरण सं० १९६६ में हमीरगढ़ में टिके। वहाँ कुछ वर्षों से हिन्दू छीपों में परस्पर कलह चल रहा था। अनेक सन्तों ने भी प्रयत्न कर लिये, किन्तु वैमनस्य दूर न हुआ । छीपों ने अपनी मनोव्यथा आपश्री के सम्मुख रखी। आपके एक ही प्रवचन से स्नेहसरिता बहने लगी। वर्षों का वैमनस्य दूर हो गया। इसी प्रकार महेश्वरी और महाजनों का भी वर्षों पुराना वैमनस्य दूर हुआ। दोनों पक्षों को आपने ऐसे ढंग से उद्बोधन किया कि वे प्रेम की छाया में आ गए । उनका मनोमालिन्य हवा हो गया। चित्तौड़ में ब्राह्मण जाति दो दलों में बँटी हुई थी। वैमनस्य इतना तीव्र था कि यदा-कदा दोनों दल आपस में टकराते रहते थे। महाराजश्री का चातुर्मास हुआ तो आपके समक्ष यह समस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy