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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ इनके पति नहीं हैं ।' 'क्यों, क्या हुआ ?' 'महाराज, यह पातरिया ( हिन्दू वेश्या) है । इनके पति नहीं होते और होते हैं तो अनेक गुरुदेव जैन दिवाकरजी महाराज के व्याख्यान सुनने के बाद इस बहिन ने रंगीन वस्त्र त्याग दिये हैं। अब श्वेत साड़ी पहनती है और ब्रह्मवयंत्रत का पालन करती है। इनकी जाति की अनेक बहिनों ने वेश्यावृत्ति छोड़कर शादी कर ली है।' यह सुनकर इस कायापलट पर श्री हरिश्चन्द्रजी मुनि को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने नासिक रोड पर जब उनसे मेरा मिलन हुआ तब गुरुदेव की प्रशस्ति करते हुए यह संस्मरण सुनाया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो गुरुदेव की महानता का जयघोष करते हैं । इन पर अलग कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाश में आना चाहिये । : २७६ एक सम्पूर्ण सम्त पुरुष श्रमण के दशधर्मों में निर्लोभता भी एक है, किन्तु यह गुण आज विकृत या शिथिल हो गया है। नवाब और राजाओं द्वारा सम्मान और भक्तिपूर्वक दिये हुए बहुमूल्य शाल और वस्त्रों को भी जिन्होंने ठुकरा दिया, उनकी निलमता का इससे बढ़कर और उदाहरण क्या हो सकता है ? उन्हें यश और पदवी का कोई लोभ नहीं था। जब उनसे आचार्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना की गयी, तब उन्होंने बड़ी निस्पृह भावना से कहा- "मेरे गुरुदेव ने मुझे मुनि की पदवी दी, यही बहुत है, मुझे भला अब और क्या चाहिये ।" ऐसे अनेक प्रसंग उनके जीवन में आये किन्तु वे अविचल बने रहे। उनकी मान्यता थी कि 'केवल वस्तु दान ही दान नहीं है, ज्ञान-दान भी दान है, बल्कि यही उत्कृष्ट दान है । सर्वोपरि त्याग है अहं का विसर्जन, अन्यों का सन्मान ।' दान का यह भी एक श्रेष्ठ आयाम है । व्यावर में पांच स्थानकवासी सम्प्रदायों ने एक संघ की स्थापना की थी। इनके प्रमुखों ने अपनी-अपनी पदवियाँ छोड़कर आचार्य की नियुक्ति की थी। जिन पांच सम्प्रदायों का विलय हुआ था उनमें से तीन में पदवियाँ नहीं थीं, दो में थीं। दो सम्प्रदायों में से भी इस सम्प्रदाय में पदवियाँ अधिक थीं। अपने प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य उपाध्याय पंडितरत्न श्री प्यारचन्दजी महाराज को भेजते हुए अपना सन्देश भेजा कि "पदवी एक ही आचार्य की रखना, पद नहीं रखना; और यह पदवी श्री आनन्द ऋषिजी महाराज को देना। यदि अलग-अलग पदवियाँ दोगे तो त्याग अधूरा रहेगा; अतः त्याग सच्चा और वास्तविक करना" श्रमण संघ की संघटना के बाद ब्यावर सम्मेलन सम्पन्न करके जब उपाध्याय थी प्यारचन्दजी महाराज लौटे तब गुरुदेव ने प्रसन्नता प्रकट की। इस अवसर पर एक साधु ने उनसे कहा - "गुरुदेव ! अपने संप्रदाय की सब पदवियों के त्याग से चार तो यथास्थान बने रहे, हानि अपनी ही हुई ।" उत्तर में गुरुदेव ने कहा"अरे मूढ़ ! श्याग का भविष्य अतीव उज्ज्वल है। आज का यह बीज कल वटवृक्ष का रूप ग्रहण करेगा । आज का यह बिन्दु कल सिन्धु बनेगा दृष्टि व्यापक और उदार रखनी चाहिये तेरामेरा क्या समष्टि से बड़ा होता है ? व्यक्ति से समाज बड़ा होता है, और समाज से संघ संघ के लिए सर्वस्व होमोगे तो कोई परिणाम निकलेगा । पदवी तो इसके आगे बहुत नगण्य है।" मैंने गुरुदेव की उस व्यापक दृष्टि का उस दिन भी आदर किया था, और में 'वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' की स्थापना पर आनन्द-विभोर हुआ था। गुरुदेव की सबसे बड़ी विशेषता थी— निर्भीकता । वे कहा करते थे – “ जो तन-मन से शुद्ध है, वह सदैव निर्भय है; और वही औरों को भी मयमुक्त कर सकता है" । वे सदैव व्यसन, पापाचरण आदि छुड़वाकर निर्भरता का वरदान देते थे। मुझे कि ऐसे महान् धर्मप्रचारक और विश्वमित्र से लोग अकारण ही पल अनुभव किया कि उनका हृदय पूरी तरह शान्त और निश्छल था इसीलिए वे प्रतिक्षण अभीत हमेशा इस बात का अफसोस रहा वैरभाव रखते थे किन्तु मैंने प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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