SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २८० : बने रहे। एक दिन उन्हें चिन्तित देख मैंने विनयपूर्वक पूछा-'गुरुदेव, आपको चिन्ता? उन्होंने कहा-'मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं है। उस ओर से मैं निश्चित हूँ। चिन्ता समाज और संघ की ही मुझे है ।' मैंने पुनः निवेदन किया-'आपने तो बहुतों का उपकार किया है । कई पथभ्रष्टों को उज्ज्वल राह दी है, कइयों को सुधारा है; समाज और संघ के उत्थान के लिए आपने अथक प्रयत्न किया है। आपको तो प्रसन्न और निश्चिन्त रहना चाहिये । आपकी यह प्रसन्नता अन्यों को उद्बुद्ध करेगी, उनका छल-कपट धोयेगी, उन्हें नयी ऊँचाइयाँ देगी।" मैंने प्रतिपल अनुभव किया कि उनका चारित्र उनकी वाणी थी और वाणी उनका चारित्र था। वे वही बोलते थे जो उनसे होता था, और वही करते थे जिसे वे कह सकते थे। कथन और करनी का ऐसा विलक्षण समायोजन अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी वाणी में एक विशिष्ट मन्त्रमुग्धता थी। कैसा ही हताश-निराश व्यक्ति उनके निकट पहुँचता, प्रसन्न चित्त लौटता । 'दया पालो' सुनते ही कैसा भी उदास हृदय खिल उठता । उसे लगता जैसे कोई सूरज उग रहा है और उसका हृदय-कमल खिल उठा है, सारी अँधियारी मिट रही है, और उजयाली उसका द्वार खटखटा रही है । कई बार मैं यह सोचता कि फलाँ आदमी आया, गुरुदेव ने कोई बात न की, न पूछी और कितना प्रसन्न है ! ! ! जैसे उसकी प्रसन्नता के सारे बन्द द्वार अचानक ही खुल गये हैं। ऐसी विलक्षण शक्ति और व्यक्तित्व के धनी थे जैन दिवाकरजी महाराज । उस त्यागमूर्ति को मेरे शत-शत, सहस्र-सहस्र प्रणाम ! कटुक वाक्य-निषेध (तर्ज-पनजी मूडे बोल) छोड़ अज्ञानीरे-२ यह कटक वचन समझावे ज्ञानी रे ।।टेर।। कटुक वचन द्रौपदी बोली, कौरव ने जब तानी रे । भरी सभा में खेंचे चीर, या प्रकट कहानी रे ॥१॥ कटु वचन नारद ने बोली, देखो भामा राणी रे ।। हरि को रुखमण से ब्याव हुओ, वा ऊपर आणी रे ॥२॥ ऐवंता ऋषि ने कटु कह्यो या, कंश तणी पटराणी रे। ज्ञान देख मुनि कथन कर्यो, पिछे पछताणी रे ॥३॥ बहू सासु से कटु क ह्यो, हुई चार जीव की हानी रे। कटु वचन से टूटे प्रेम, लीजो पहचानी रे ॥४॥ थोड़ो जीनो क्यो कांटा वीणो, मति बैर बसाओ प्राणी रे। गुरु प्रसाद चौथमल कहे, बोलो निर्वद्य वाणी रे ॥५॥ -जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy