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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २७८ : साहूकार जितने अनुरक्त थे, उतने ही अपढ़ किसान, कलाल, खटीक, मोची, हरिजन आदि भी थे। सभी कहते-गुरुदेव की हम पर बड़ी कृपा है, बड़ी मेहरबानी है। हर आदमी यह समझता था कि गुरुदेव की उस पर बड़ी कृपा है। कई लोग कहा करते–'राणाजी के गुरु होकर भी उन्हें अभिमान नहीं'। उनके सम्पर्क में आने वाले ऐसे अनेक व्यक्ति थे, जो अनुभव करते थे कि 'मुझ पर गुरुदेव का अत्यधिक स्नेह है।' पंजाब-केसरी पंडितरत्न श्री प्रेमचन्दजी महाराज ने अपना एक अनुभव सोजत सम्मेलन के व्याख्यान में सुनाया था। जब वे रतलाम का भव्य चातुर्मास सम्पन्न कर उदयपुर होते हुए राणावास के घाट से सीधे सादड़ी मारवाड़ होकर सोजत के लिए पधार रहे थे, तब उन्हें जिस रास्ते से जाना था वह कच्चा था, गाड़ी-डार थी, सड़क नहीं थी, माइलस्टोन भी नहीं थे। कहे दो कोस तो निकले तीन कोस, कहे चार कोस तो निकले छह कोस, ऐसा अनिश्चित था सब कुछ। आपने कहा-एक गाँव से मैंने दोपहर विहार किया । अनुमान था कि सूर्यास्त से पहले अगले गांव में पहुँच जाएंगे, किन्तु गांव दूर निकला । सूर्यास्त निकट आ रहा था। पांव जल्दी उठ रहे थे मंजिल तक पहुँचने के लिए उत्कण्ठित । ऐसे में एक छोटी-सी पहाड़ी पर खड़ा आदिवासी भील मेरी ओर दौड़ा। मैंने समझा यह भील मुझे आज अवश्य लूटेगा। सुन भी रखा था कि भील जंगल में लूट लेते हैं। उसे आज सच होते देखना था; फिर भी हम लोग आगे बढ़ते रहे। भील सामने आकर बोला-'महाराज वन्दना'। पंजाब केसरीजी बोले-'मैं आश्चर्यचकित रह गया यह देख कि झोंपड़ी में रहने वाला एक भील, जिसे जैन साधु की कोई पहचान नहीं हो सकती, इस तरह बड़े विनयभाव से वन्दना कर रहा है।' जब उससे पूछा तो बोला, 'महाराज मैं और किसी को नहीं जानता, चौथमलजी महाराज को जानता है।' उस भील की उस वाणी को सुनकर उस महापुरुष के प्रति मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक गया। मेरी श्रद्धा और प्रगाढ़ हो गयी। सोचने लगा-'अहा, झोंपड़ी से लेकर राजमहल तक उनकी वाणी गूंजती है, यह कभी सुना था; आज प्रत्यक्ष हो गया ।' भील बोला-'महाराज ! दिन थोड़ा है । गाँव अभी काफी दूर है । आज आप मेरी झोंपड़ी पावन करें। 'महाराज, मेरी झोंपड़ी गन्दी नहीं है। मैंने मांस-मदिरा-शिकार सब छोड़ दिया है। अब वह पवित्र है । आपके चरणों से वह और पवित्र हो जाएगी।' मैंने कहा-'भाई, तेरी झोंपड़ी में इतना स्थान कहाँ, और फिर जैन साधु गृहस्थ की गृहस्थी के साथ कैसे रह सकते हैं।' भील ने कहामहाराज, हम सब बाहर सो जाएंगे। आप झोपड़ी में रहना ।' उसकी इस अनन्य भक्ति से हृदय गद्गद हो गया; मैंने कहा-'अभी मंजिल पर पहुंचते हैं। तुने भक्तिभाव से रहने की प्रार्थना की, तुझे धन्यवाद । उन जैन दिवाकरजी महाराज को भी धन्यवाद है, जिन्होंने तुम लोगों को यह सन्मार्ग बताया है।' एक उदाहरण पं० हरिश्चन्द्रजी महाराज पंजाबी ने भी सुनाया था। उन्होंने कहा-जब, जोधपुर में पंडितरत्न श्री शुक्ल चन्द्रजी महाराज का चातुर्मास था, व्याख्यानस्थल अलग था और ठहरने का स्थान अलग । व्याख्यान-स्थल पर कुछ मुनि पं० शुक्ल चन्दजी महाराज के साथ जाते थे और अन्य मुनिगण ठहरने के स्थान पर भी रहते थे। व्याख्यान-समाप्ति के बाद कुछ भाई-बहि मुनियों के दर्शन के लिए ठहरने के स्थान पर जाया करते थे। व्याख्यान के बाद प्रतिदिन एक बहिन सफेद साड़ी पहनकर आती थी और बड़े भक्तिभाव से तीन बार झुककर सभी मुनियों को नमन करती थी। एक दिन पं० हरिश्चन्द्र मुनि ने पूछा-'तुम व्याख्यान सुनने, दर्शन करने आती हो, श्रावकजी नहीं आते।' इस पर पास खड़े श्री शिवनाथमलजी नाहटा ने कहा-'महाराज, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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