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________________ : २७७ : एक सम्पूर्ण सन्त पुरुष श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || भरी तरुणाई में रूपसि पत्नी की रेशम-सी कोमल राग-रज्जू को काटना क्या किसी साधारण पुरुष का काम है ? उनका सुहागरात न मनाना और पत्नी को जम्बूस्वामी की तरह संयम-मार्ग पर लाना एक इन्द्रियजयी की ही पहचान है। संयमावस्था में भी वे आत्मचिन्तन और स्वाध्याय में ही व्यस्त रहते थे, निन्दा, विकथा और अनर्गल-व्यर्थ की बातों की ओर उनका लक्ष्य ही नहीं था । कोई कभी-कभार आया भी तो उससे स्वल्प वार्तालाप और जल्दी ही पूर्ण विराम। ऐसा नहीं था उनके साथ कि घंटों व्यर्थ की बातें करते और अपना बहुमूल्य समय बर्बाद करते । साधु-मर्यादा के प्रति वे बड़े अप्रमत्त भाव से प्रतिपल चौकस रहते थे। कदम-कदम पर आत्मोदय ही उनका चरम लक्ष्य होता था। उन्होंने रसना-सहित पांचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की थी। वे रात तीन बजे उठ जाते थे। सुखासन से बैठकर माला फिराते, चिन्तन करते, प्रतिक्रमण करते । लगभग तीन-चार घण्टे उनके इसी आसन में व्यतीत होते थे। एक दिन मैंने उनसे पूछा-'गुरुदेव ! आप इतनी जल्दी उठ जाते हैं तो कभी नींद का झोंका तो आ ही जाता होगा? बोले-'कभी नहीं ।' दिन में भी, यदि पिछले कुछ समय की बात छोड़ दें तो, वे कभी सोते नहीं थे। ७४ वर्ष की आयु में भी ३-४ घण्टे निरन्तर जप-ध्यान-चिन्तन-प्रतिक्रमण करना और नींद को एक पल भी अतिथि न होने देना आश्चर्यजनक है । ऐसा सुयोग, वस्तुतः किसी आत्मयोगी को ही सुलभ होता है। क्षमा की तो वे जीती-जागती मूर्ति ही थे। उन्होंने कभी किसी के प्रति वैर नहीं किया। कोई कितनी ही, कैसी ही निन्दा क्यों न करे, वे उस सम्बन्ध में जानते भी हों, फिर भी कोई द्वेष या दुर्भावना या प्रतिकार-भावना उनके प्रति नहीं रखते थे। जो भी मुनि उनसे मिलने आते थे उन सबसे वे हृदय खोलकर मिलते थे; जिनसे नहीं मिल पाते थे उनके प्रति कोई द्वेष जैसी बात नहीं थी। लोग कहते फलां व्यक्ति वन्दना नहीं करता, तो गुरुदेव एक बड़ी सटीक और सुन्दर बात कहा करते थे-'उनके वन्दन करने से मुझे स्वर्ग मिलने वाला नहीं और वन्दन नहीं करने से वह टलनेवाला नहीं। मेरा आत्मकल्याण मेरी अपनी करनी से ही होगा, किसी के वन्दन से नहीं।' स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य सूक्ति है यह । दया के तो वे मानो अवतार ही थे। करुणासिन्धु गुरुदेव दया और उपकार के लिए इतने संकल्पित थे कि उन्हें अपनी बढ़ी हुई अवस्था · का भी ख्याल नहीं रहता था । मेशिया (राजस्थान) में जेठ की भर दुपहर में जब लू चल रही थी, घास-फूस के छप्पर-तले कुछ किसान-मजदूर और ग्रामवासी प्रवचन सुनने एकत्रित हुए। प्रवचन सुनना है एकत्रितों की यह इच्छा जानते ही आप तैयार हो गये। यदि मुझे ऐसे समय कोई कहता तो मैं धूप, धूल और लू देखकर मना कर देता किन्तु गुरुदेव करुणासिन्धु थे, ना कसे कहते ? उन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक व्याख्यान दिया। समय नहीं काटा । इधर-उधर की बातों से व्याख्यान पूरा नहीं किया। हम लोगों को भी उनके प्रवचन में कुछ-न-कुछ नया मिल ही जाता था। व्याख्यान के बाद एक साधु ने प्रश्न किया-'माटी और फस की झोपड़ी के कारण आपकी चादर पर रेत और घास गिर गया है। आप दोपहर को प्रवचन न करते तो क्या था ?' गुरुदेव बोले-'एक व्यक्ति ही मांस, शराब, तम्बाकू, जूआ आदि छोड़ दे तो एक व्याख्यान में कितना लाभ मिल गया ? कितने जीवों को अभय मिला? मेरे थोड़े से कष्ट में कितना उपकार !' गुरुदेव सर्वजनप्रिय थे। जगद्वल्लभ थे। उनके प्रति राजे-महाराजे, ठाकुर-जागीरदार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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