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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : २७६ : एक सम्पूर्ण संत पुरुष * श्री केवल मुनि उन्होंने बड़ी गम्भीरता से कहा-“पाँच सौ घर के सिवाय जो लोग यहाँ बसते हैं, हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक, वे सब हमारे हैं।' उनके प्रति राजे-महाराजे, ठाकुर-जागीरदार, सेठ-साहकार जितने अनुरक्त थे, उतने ही निरक्षर किसान, कलाल, खटीक, मोची, हरिजन आदि भी। 'सहस्रषु च पंडितः' की सूक्ति के अनुसार हजार में कहीं, कभी एक पंडित होता है; और ज्ञानी तो लाखों में कोई एक विरला ही मिलता है, क्योंकि ज्ञानी ज्ञान की जो लौ ज्योतित करता है, वह उसकी जीभ पर नहीं होती, जीवन में होती है और कुछ इस विलक्षणता से होती है कि लाख-लाख लोगों का जीवन भी एक अभिनव रोशनी से जगमगा उठता है। भगवान् महावीर के सिद्धान्तानुसार ज्ञानी अहिंसा की जीवन्त मूर्ति होता है । संस्कृत में एक श्लोक है अक्रोध वैराग्य जितेन्द्रियत्वं, क्षमा दया सर्वजनप्रियत्वं । निर्लोभ दाता भयशोकहर्ता, ज्ञानी नराणां दश लक्षणानि ॥ उक्त श्लोक में ज्ञानी के दस प्रतिनिधि लक्षण गिनाये गये हैं। ये वस्तुतः एक सम्पूर्ण संतपूरुष के लक्षण हैं । जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी महाराज सम्पूर्ण सन्तपुरुष थे। वे ज्ञान के अथाह, अतल सिन्धु थे। मैं उनका शिष्य रहा हैं। मैंने उन्हें बहुत निकट से देखा है। मैं जानता है कि वे किस तरह प्रतिपल समाज के उत्थान में समर्पित थे। वे दिवाकर थे, उन्होंने जहाँ भी, जिसमें भी, जैसा भी अंधियारा मिला, उससे युद्ध किया। अज्ञान का अँधियारा, रूढ़ियों का अँधेरा, दुर्व्यसनों का अंधेरा, छुआछूत और भेदभाव का अँधेरा-इन सारे अंधेरों से वे जूझे और उनके प्रवचन-सूर्य ने हजारों लोगों के जीवन में रोशनी का खजाना खोला । वे परोपकारी पुरुष थे, उनका जीवन तिल-तिल आत्मोत्थान और समाजोदय में लगा हुआ था। क्रोध उनमें कम ही देखने में आया उनके युग में साम्प्रदायिकता ने बड़ा वीभत्स रूप धारण कर लिया था। लोग अकारण ही एक दूसरे की निन्दा करते थे; और आपस में दंगा-फसाद करते थे। बात इस हद तक बढ़ी हुई थी कि लोग उनके गांव में आने में भी एतराज करते थे, जैसे गाँव उनकी निज की जागीर हो, किन्तु दिवाकरजी महाराज ने बड़े शान्त और समभाव से इन गांवों में विहार किया। उदयपुर का प्रसंग है । गुरुदेव वहाँ पहुँचे तो लोगों ने कहा-'यहाँ हमारे ५०० घर हैं, आप कहाँ जा रहे हैं ?" उन्होंने बड़ी गहराई से कहा-“५०० घर के सिवाय जो लोग यहाँ बसते हैं हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक वे सब हमारे हैं।' सर्प की तरह फन उठाये क्रोध का इतना शान्त उत्तर यदि कोई दे, तो आप उसे क्रोधजयी कहेंगे या नहीं ? वैराग्य तो आपको विवाह से पहले ही हो गया था। वह उत्तरोत्तर समृद्ध होता गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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