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________________ श्रद्धा का अध्यं : भक्ति-भरा प्रणाम : १६८ : संत-परम्परा की एक अमूल्य निधि ! * मुनि श्री प्रदीपकुमार 'शशांक' भारतीय जन-जीवन की पृष्ठभूमि के निर्माण में ऋषियों, मनीषियों और मनस्वी चिन्तकों का महान् योगदान रहा है । समय-समय पर सन्तों ने इस देश में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिवेणी मानव-हृदय में प्रवाहित कर, जनमानस को आध्यात्मिक चेतना का अमूल्य अवसर प्रदान किया है। वैसे भी भारतवर्ष का लोक-जीवन सदैव धर्म एवं संस्कृति से आबद्ध रहा है । जिसमें श्रमण संस्कृति का भी अद्वितीय योगदान रहा है। श्रमण संस्कृति सदैव आचार प्रधान रही है । जिसके संरक्षक प्रायः जैन सन्त रहे हैं, जिनका मुख्य ध्येय मोक्ष और साधना धर्म है। भारतीय इतिहास के शौर्यपूर्ण अनेक स्वर्णिम-पृष्ठ महातपस्वी नर-रत्नों की गौरव-गाथाओं से भरे हुए हैं। आध्यात्मिक योगी, स्वनामधन्य, जैन दिवाकर स्वर्गीय श्री चौथमलजी महाराज जैन जगत की सन्त-परम्परा के एक अमूल्य निधि के रूप में श्रमण संघ को गौरव-प्रदाता एक महान संत हुए हैं। निःसन्देह आपका भव्य-ललाट, ओजस्वी, तेजस्वी, यशस्वी, वचस्वी अनेकानेक सद्गुणों से ओतप्रोत सत्य-सादगी की साकार मूर्ति रूप हुए। आपने जैन जगत् के दिव्य-भाल पर एक अनूठी आकर्षक व्यक्तित्व की अमिट छाप डाली। आपने अपने साधनाकाल में स्व-पर-कल्याण की बहुमुखी विराट् भावना को लेकर जो ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किए । उन्हें शब्द-जाल में बांधना अशक्य है। वस्तुत: वे जैन समाज के महान् सन्तरत्न थे। अन्त में मैं उनकी जन्म शताब्दी के पावन उपलक्ष्य के पावन प्रसंग पर उनके अमूर्त, अपार्थिव व्यक्तित्व को यह श्रद्धा का सुमन अर्धविकसित रूप में हादिक भावांजलि के स्वरूप में समर्पित कर अपने आप को धन्य एवं परम भाग्यशाली समझ रहा हूँ। श्रद्धा के दो सुमन - संगीत प्रेमी, बाबा विजयमुनि (गोरे गाँव, बम्बई) पूज्य श्री चौथमलजी महाराज भारत के एक महान् सन्त थे । एक सम्प्रदाय के गुरु होकर भी आपने सब सम्प्रदायों का प्रेम अजित किया इससे स्पष्ट होता है कि आप एक सम्प्रदाय में रहकर भी साम्प्रदायिकता से ऊपर रहते थे। आपकी संयम-साधना ने आपको जन-जन के आकर्षण का केन्द्र बना दिया। आपकी वाणी में अलौकिक प्रभाव था । आपका जीवन, वाणी तथा चारित्र के प्रभाव का एक प्रकार से संगमस्थल था । आपने भगवान महावीर के अहिंसा धर्म का चहुंमुखी प्रचार कर; जैन शासन की जो अनुपम सेवा की है उसकी स्मृति लोक-मानस में सदैव सुरक्षित रहेगी। सोजत तथा जोधपुर में मुझे आपके भव्य दर्शन करने का सौभाग्य मिला। आपके व्यक्तित्व ने मुझे अति प्रभावित किया । आपका दर्शन मेरे जीवन-क्षेत्र में दीक्षा के दृढ़ संकल्प का एक प्रकार से बीजांकुर बन गया। उस महान् मुनीश्वर के चरण-सरोजों में मैं अपने श्रद्धा के सुमन अर्पण करके सन्तोष करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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