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________________ :१६७ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ जैन दिवाळसुना दिवाकर * रतन मुनि (मेवाड़ भूषण श्री प्रतापमलजी महाराज के सुशिष्य) जैनधर्म के प्रसिद्ध तथा सफल सिद्धान्तों पर चलकर जिन महामुनियों ने अपना उत्थान किया। जिनके उदबोधन से सैकड़ों-हजारों बल्कि लाखों प्राणियों के जीवन में परिवर्तन आया । जन-जन में जिनके संयम की सौरभ सदा सुवासित रही, उन्हीं महान् सन्तों में से एक शताब्दि पूर्व-जन्म लेने वाले हमारे स्वर्गीय जैन दिवाकर गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज हुए हैं। साधना के क्षेत्र में जिनकी आत्म-चेतना काफी सबल और सक्रिय तथा गतिशील थी। आज भी जिनके विमल विशुद्ध व्यक्तित्व की मनोहर झांकी जन-जन के हृदय में छाई हुई है। आप एक सफल चरित्रकार भी हुए थे। कई भव्य सुन्दर, सरस, सारगर्मित तथा वैराग्यरस से ओत-प्रोत चरित्र आपने बनाये हैं। आपके प्रवचनों में उपनिषद्, रामायण, महाभारत, कुरान-शरीफ, धम्मपद, जैनागम तथा धर्म-सम्मत नीतियों का बड़ा ही सुन्दर विवेचन-युक्त ज्ञान का सागर लहराता था। यही कारण रहा है कि आपके उपदेशों को सुनने के लिए जैन ही नहीं ३६ ही कौम लालायित रहती थी। आपकी वाणी का असर महलों से लेकर झोंपड़ी तक, राजा से लेकर रंक तक तथा सैकड़ोंहजारों राणा-महाराणा, जागीरदार, उमराव, इन्स्पेक्टर, एलकार, नवाब तथा अंग्रेजों पर पड़ा। जिन्होंने आपके सन्देशों से प्रभावित होकर जीवन-भर के लिए मद्य-मांस, शिकार, जूआ इत्यादि अनिष्ट व्यसनों के त्याग किये। ऐसी एक नहीं अनेक विशेषताएँ आपमें विद्यमान थीं। जिसके कारण आप प्रसिद्ध वक्ता, जगत्वल्लभ तथा जैन के ही नहीं जन-जन-मानस के दिवाकर बन गये। हालांकि""""""मैंने आपके दर्शन तथा वाणी का लाभ नहीं लिया, फिर भी आपके इस दिव्य तेजस्वी प्रभाव ने मेरे अन्तर-हृदय को प्रभावित कर दिया। ___ आप एक सफल कवि, लेखक, सुवक्ता, चरित्रकार, सुगायक, सम्पादक, धर्मप्रचारक आदि इन सभी गुणों से भरे-पूरे थे। जगत्वल्लभ प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर स्वर्गीय गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज के चरणों में श्रद्धा के साथ चन्द माव-शब्द-सुमन अर्पित करता हूँ। श्रद्धा समन... जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज एक तेजस्वी समाज-सुधारक सन्त थे। उन्होंने अपना समूचा जीवन मानव-कल्याण में समर्पित कर दिया। उन्हें वस्तुतः जैन सन्त नहीं, बल्कि एक राष्ट्रसन्त के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। मुनिश्री का हर पल राष्ट्र में व्याप्त असमानता, अव्यवस्था, अन्धविश्वास एवं अधार्मिक वातावरण को दूर करने में लगा था। ऐसे महामानव के चरण-कमलों में मैं अपने श्रद्धा-सुमन चढ़ाता हूँ। -डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' -अध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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