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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || स्मृतियों के स्वर : १३०: एक सत्य कथा जैसी करनी, वैसी भरनी श्रीमती गिरिजा 'सुधा' माधू खटीक आज फिर बुरी तरह से ठर्रा पीकर पत्नी पर हाथ उठा बैठा था । गालियों का प्रवाह बदस्तूर जारी था । उस बेचारी ने आज सिर्फ यही कहा था पड़ोसिन से कि 'इन अनबोले जीवों की हाय हमारा सुख-चैन छीनकर ही मानेगी। कितना कमाते हैं ये, पर पाप की लछमी में बरकत कहाँ ? तभी घर-खेंच मोची के मोची हैं हम।' पाप की लक्ष्मी की बात सुनते ही माधू के तन-बदन में आग लग गयी। वह चीख उठा घरवाली की पीठ पर दो-चार मुक्के जमाकर-"......"बड़ी पुण्यात्मा बनी फिरती है । अरे खटीक बकरों का ब्योपार नहीं करेंगे तो क्या गाजर-मूली बेचकर दिन काटेंगे हम अपने । खटीक वंश का नाम डबोऊँगा क्या मैं माधो खटीक !" ....."और आग्नेय नेत्रों से उसे घूरता मूंछों पर बल देता पीड़ा से कराहती छोड़ वह बाहर चल दिया। पत्नी उसकी सात पीढ़ियों को कोसती रही। थोड़ी देर बाद वह वापिस आया और बोला"मैं बकरों को बेचने ले जा रहा हूँ। अभी तो बलि चढ़ाने वाले ऊपर-तरी पड़ रहे है । अच्छे दाम मिलने की उम्मीद है । दो तो बेच ही आता हूँ आज।" आत्मव्यथा से कराहती पत्नी ने कुछ भी नहीं कहा और वह उसी क्षण बाहर हो गया। बकरों को बाड़े से लेकर वह आगरा के एक कस्बे की ओर चल दिया। चलते-चलते दोपहर हो गयी तो उसने बकरों को एक छायादार जगह में बैठा दिया और खुद भी सुस्ताने की गरज से एक पेड़ के पास जा टिका। उधर आगरा की ओर से जैन सन्त श्रीचौथमलजी महाराज अपनी मण्डली के साथ कदम बढ़ा रहे थे। उन्होंने उसे सोते और पास में बकरों को चरते देखा, तो उनके मन में अनायास ही दया उमड आयी। उन्होंने मन-ही-मन उस कसाई को आज सही रास्ता बतलाने का निर्णय किया और आप भी वहीं वृक्षों की छाया में विश्राम करने लगे। जैसा कि स्वाभाविक था, कुछ ही देर बाद माधू नींद से जागा और बकरे लेकर चलने लगा। तमी करुणामूर्ति श्रीचौथमलजी महाराज ने उससे पूछा-"क्यों मैया, इन्हें कहीं बेचने ले जा रहे हो क्या ?" "बेचूंगा नहीं तो खाऊँगा क्या ?" वह एकदम रुखाई से बोला और चलने की तैयारी करने लगा। महाराजश्री ने अपनी मधुर वाणी में उसको समझाते हुए कहा-"भाई, तू यह पापकर्म आखिर किसलिए करता है ? जीवन-निर्वाह के तो छोटे-बड़े अनेक साधन मिल सकते हैं। तुझे यह कहावत पता नहीं है क्या-'जैसी करणी वैसी भरणी ?' अरे, इस तरह मूक पशुओं की हिंसा करेगा तो उनकी हाय आखिर किस पर पड़ेगी? दूसरों को दुःख देकर संसार में आज तक कोन सुखी हआ है ? अब तुम यह सब पाप भी कर रहे हो और सुखी भी नहीं हो; हो क्या ? देखो, न तो शरीर पर अच्छे कपड़े हैं, न बढ़िया खाना-पीना मयस्सर है। फिर ऐसी पाप की कमाई के पीछे पड़े रहने में क्या सार है भैया ? सिर्फ पेट भरने के लिए क्यों पाप की गठरी बाँध रहे हो; बोलो बाँध रहे हो या नहीं ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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