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________________ १३१ पांच मिनट में भीड़ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ "महात्माजी | मैं आपके सामने जरा भी झूठ नहीं बोलूंगा ! पर यह बात आपने सच ही कही है कि 'जैसी करनी, वैसी भरनी' । मैं सुखी जरा भी नहीं हूँ । आमदनी भी भरपूर है, वैसे, पर उसमें बरकत जरा भी नहीं है ।" माधू ने अपनी बात झिझकते झिझकते भी कह ही डाली । W महाराजश्री ने तभी अपना उपदेश आगे बरकरार रखते हुए कहा- "भाई, अब तुम समझ गये हो कि सुखी नहीं हो, इस धन्धे की कमाई में बरकत भी नहीं है, फिर इस धन्धे को छोड़ क्यों नहीं देते ? तुम्हें ध्यान है क्या कि सवाई माधोपुर के खटीकों ने ऐसा जघन्य पाप करना छोड़ दिया है । वे अब दूसरे धन्धों में लगे हुए हैं और ठाठ से अपनी रोटी कमा खा रहे हैं, उनके घरों में आनन्द ही आनन्द है ।" माधू खटीक को यह मालूम था, अतः वह बोला -- "जी हाँ महात्माजी ! मुझे पता है कि वे दूसरे धन्धे में लग गये हैं। मैं भी इस धन्धे से पिण्ड छुड़ाना चाहता हूँ पर'''''''''' "पर ! क्या ?" - उन्होंने पूछा । " बात यह है गुरु महाराज कि मैं कोई धनवान आदमी तो हूँ नहीं, गरीब हूँ, जैसे-तैसे पेट पाल रहा हूँ। मेरे पास बत्तीस बकरे हैं। यदि ये बिक जाएं तो इनकी पूंजी से में कोई-न-कोई छोटा-बड़ा धन्धा शुरू कर दूंगा। आप मेरा यकीन कीजिये प्रभो ! मैं कभी भी अपने प्रण से नहीं टलूंगा। पापी पेट भरने के लिए मैं किसी जीव को जरा भी नहीं सताऊँगा ।" महाराजश्री ने भावकों से कहकर उसके बकरों के दाम दिलवा दिये। माधू खटीक का जीवन उस दिन जो बदला तो उसकी सारी आस्थाएँ ही बदल गयीं। जिन्दगी की रौनक बदल गयी । वह महाराजश्री के चरणों में गिर कर अपने कुकृत्यों के लिए क्षमायाचना करता अध-बिन्दुओं से उनके चरण कमल प्रक्षालित कर रहा था। हिंसा पर अहिंसा की इस विजय का सारे शिष्य एवं श्रावक समुदाय पर बड़ा व्यापक प्रभाव हुआ । कोई गुनगुना उठा तभी - संगः संता किं न मंगलमातनोति ( सन्तों की संगति क्या-क्या मंगल नहीं करती ? ) माधू घर आया तो उसका आचरण बदला हुआ था । उसने एक छोटी-सी दुकान लगाकर पाप की कमाई से छुटकारा पाकर घर में बरकत करने वाली खरे पसीने की कमाई लाने की राह तलाश ला थी। उस राह पर बढ़ गया वह अब उसकी पत्नी उस पर नाराज नहीं रहती। बदलती आस्थाओं के साथ वह उसकी सच्ची जीवन संगिनी बन गयी है हर पल प्रतिक्षण हीर-पीर की भागीदार । पाँच मिनट में भीड़ Jain Education International # सौभाग्यमल कोचट्टा ( जावरा ) नीमच की एक घटना का स्मरण मुझे है बात वि० सं० १९९९ की है। गुरुदेव अपनी शिष्य मण्डली के साथ नीमच पधारे थे। मैं भी उनके दर्शन-लाभ का लोभ नहीं रोक सका। दर्श नार्थ नीमच गया । वे चौरड़िया गुरुकुल में विराजमान थे। रात्रि में अपने अनुयायियों को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते रहे। प्रातःकाल विहार पर निकले। मैं भी साथ हो गया। चलतेचलते मैंने प्रश्न किया- " नीमच तो आपकी जन्म भूमि है, फिर भी बिहार में आपके साथ तीनचार भक्तों से अधिक नहीं हैं ?" प्रश्न सुनकर वे दो मिनट ध्यानस्थ हो गये । मैं स्तब्ध देखता रहा । चारों ओर से जन-समूह उमड़ पड़ा। मुझे याद है अधिक-से-अधिक पाँच मिनट में वहाँ एक हजार से अधिक भक्तों की भीड़ जमा हो गयी थी । मेरे लिए निश्चित ही यह एक अद्भुत अपूर्व घटना थी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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