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________________ पावापुर : महावीरकी निर्वाणभूमि महात्माओंने जहाँ जन्म लिया, तप किया, ज्ञान प्राप्त किया, उपदेश दिए, जीवन में अनेकों बार आये गये, शरीरका त्याग किया, उन स्थानोंको लोकमें तीर्थ (पवित्र जगह) कहा गया है। पावापुर भी एक ऐसा ही पावन तीर्थ स्थान है जहाँसे भगवान महावीरने शरीरका त्याग कर निर्वाण-लाभ किया था। महत्त्व विक्रमकी पांचवीं शताब्दीके विद्वान् आचार्य यतिवृषभने 'तिलोयपण्णत्ति' में कहा है पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ॥४-१२०८ ॥ पावापुरसे भ० वीरने सिद्ध पद प्राप्त किया। इसी प्रकार विरूमकी छठी शतीके आचार्य पूज्यपादने भी अपनी 'निर्वाण भक्ति में लिखा है पावापुरस्य बहिरुन्नत-भूमिदेशे, पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूत-पाप्मा ॥२४॥ अर्थात् पावापुरके बाहर ऊँचे स्थानपर, जिसके चारों ओर विविध कमलोंसे व्याप्त तालाब हैं, धाति अधातिरूप पापमलको सर्वथा नाश कर भगवान् वर्द्धमान जिनेन्द्रने निर्वाण प्राप्त किया। आचार्य जिनसेन (विक्रमकी ९वीं शती) ने भी अपने 'हरिवंशपुराण'में पावापुरसे निर्वाण प्राप्त करनेका विस्तृत वर्णन किया है । वे कहते हैं कि भ० वीरनाथ चारों ओरके भव्योंको प्रबुद्ध करके समृद्धिसम्पन्न पवित्र पावा नगरीमें पहुँचे और वहाँ उसके मनोहर उद्यानमें स्थित होकर कर्मबन्धनको तोड़ मुक्तिको प्राप्त हुए। इसी तरह 'निर्वाणकाण्ड' तथा अपभ्रंश 'निर्वाणभक्ति में भी कहा है (क) पावाए णिव्वुदो महावीरो ॥१॥ (ख) पावापुर वंदउ वड्ढमाणु, जिणि महियलि पयडिउ विमल णाणु ॥ अर्थात् हम उस पवित्र तीर्थ पावापुरकी वन्दना करते हैं जहाँसे वर्द्धमान जिनेन्द्र ने निर्वाण लाम किया और पृथ्वीपर विमल ज्ञानकी धारा बहाई।। विक्रमकी १३वीं शताब्दीके विद्वान् यतिपति मदनकीतिने भी अपनी रचना 'शासन चतुस्त्रिशिका' में वहाँ वीर जिनेन्द्रकी सातिशयमूर्ति होने और लोगों द्वारा उसकी भारी भक्ति किये जानेका उल्लेख करते हुए लिखा है तिर्यञ्चोऽपि नमन्ति यं निज-गिरा गायन्ति भक्त्याशयाः द्रष्टे यस्य पदद्वये शुभदृशो गच्छन्ति नो दुर्गतिम् । देवेन्द्राचित-पाद-पंकज-युगः पावापुरे पापहा श्रीमद्ववीरजिनः स रक्षतु सदा दिग्बाससां शासनम् ॥१८॥ -४७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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